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(८) , जयिनी में भीषण दुर्भिक्षपड़ा। वह यहां तक कि मिलक लोग एका एक उदर फाड़कर भीतरका अन्न निकालरकर खाने लगे। उससमय साधु लोग वास्तविक मार्गको नहीं रख सके। परन्तु किसी तरह अपना पेट सोभरनाही पड़ता था। इसलिये धीरे २ शिथिल होकर वल, वर,भिक्षापात्र, कम्बलादि धारण कर लिये। इसी तरह जव कितना काल बीता
और सुभिक्ष हुआ तब धान्यापार्यने अपने सब संघको बुलाकर का कि अब इस बुरे मार्गको छोड़ो और वास्तविक सुमार्ग अङ्गीकार करो। उस समय जिनचन्द्र शिष्यने कहां कि हम यह पलादि रहित मार्ग कभी नहीं खीकार कर सकत । ओर न इस सुखमागेका परिस्याग ही कर सकते हैं । इसलिये आपका इसीमें मला है कि आप
चुपसाब जावें । शान्त्याचार्यने फिर भी समझाया कि तुम भले ही इस 'कुमार्गको धारण करो परन्तु यह मोक्षका साधन नहीं होसकताहांउदर
मरनेका वेशक साधन है । शान्त्याचार्यके वचनोंसे जिनपन्द्रको :बला कोष आया और उसी अवस्थामें उसने अपने गुरुके शिरकी दण्डों २ से खूब अच्छी तरह खबर छी-जिससे उसी समय शान्याचार्य शान्त परिणामोसें भर कर न्यन्तर देव हुये । और अपने प्रधान शिष्य .जिनचन्द्रको शिक्षा देने लगे। उससे वह दरा सो उनकी शान्तिके लिये उसने आठ महुल चौड़ी तथा लम्बी एक काठको पट्टी बनाई और उसमें शान्त्याचार्यका संकल्प कर पूजने लगा सो वह उसी रूपमें आज मी लोकमें जलादिसे पूजा जाता है । मब हो वही पर्युपासन 'नाम कुछदेव कहलाने लगा । बाद श्वेत बल धारण कर उसकी पूजन "की गई तमीसे लोकमें श्वेताम्बर मव प्रख्याव हुआ।*
हमारे पाठमोको यह सन्देह होगा कि-भद्रबाहुचरित्रमें तो स्पूनाचार्य मारे गये लिखे हैं और भावसंग्रहमें शान्ताचार्य सो यह फर्क क्यों? ___मादम होता है कि-शान्याचार्यही का अपर नामस्थूलाचार्य है। क्योंकि यह पात खेदोनों अन्धकारने मानी है कि पताम्बर मतका संचालक जिनचन्द्र हुला है और उन्होंने दोनोंका से शिष्य भी बताया है। दूसरे दर्शनसारमें भी 'चान्याचार्य शिष्य जिवचन के द्वाराही श्रेताम्बर मतकी उत्पत्ति बतलाई गई। 'और यह अन्य प्राचीन भी अधिक है। इसलिये हमारी समझमें तो स्मूलाचार्यका हो इसरा पाम मिनरन्न था। ऐसाही जचता है और न ऐसा होमा मसम्मान हो।