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कालिकाचार्यकथा। पुरोहितिई राजा प्रसंसा करतु देखीनई मस्तकि सूल उपजवा लागतइ गुरु कन्हलि जई जीवाजीवादिकनु वाद मांडिउ । गुरे वाद करतां निराकरिउ हराविउ । पछह मनि असूया ईर्ष्याभाव अतिहिं करह ॥४८॥
कौटिल्यभावेन यतीन् प्रशंसन् , नरेन्द्रचित्तं विपरीतवृत्तम् ।
चक्रे पुरोधा गुरुभिः स्वरूपं, प्रातं यतिभ्यो यदनेषणीयम् ॥१९॥ पछइ ते पुरोहित कुटिलपणानई भाविइं हीयइ कूड छतइ महात्मानई प्रशंसह । लोकनइ कहइ महात्मानइ भात पाणी असूझतां करावइ । इम करतां गुरे जाणिउं भातपाणी असूझतां इवा लागां ॥४९॥
(३) ते दक्षिणस्यां मरहट्ठदेशे, पृथ्वीप्रतिष्ठानपुरेऽय जग्मुः।
यत्रास्ति राजा किल सातयाना, प्रौढप्रतापी परमाईतश्च ॥५०॥ श्रीकालिकसूरे भातपाणी असूझ हुतां जाणी विहार कीधु ! मरहठदेसमाहि पइठाणपुर पाटणि जिहां सालिवाहन राज्य परम जैन श्रावक राज्य करइ छइ तिहां पुहता ॥५०॥
राज्ञाऽन्यदाऽपृच्छि सभासमक्ष, मभो! कदा पर्युषणा विधेया ? ।
या पश्चमी भाद्रपदस्यले, पक्षे च तस्यां भविता मुपवें ॥५१॥ एक वार सालिवाहन राजाई पूछिउं भगवन् ! पजूसण कहीइ कीजसिइ ! गुरे कहिउँ भादवइमासि अजूभाला पखवाडइ पांचमिइ पजूसण पडिकमवु कहिउँ छइ ॥५॥
नृपोऽवदत् तत्र महेन्द्रपूजामहो । भवत्यत्र मुनीन्द्र ! घने ।
मयाऽनुगम्यः स च लोकनीत्या, स्नात्रादिपूजा हि कयं भवित्री ? ॥५२॥ राजा सालिवाहन कहवा लागु, भगवन् ! आपणइ श्राणिई देसि महेन्द्रपूजा पांचमिई हुइ । लोक सघल ते पर्व करइ । अनई मई ते लोक व्यवहारिई ते महोत्सव करितु । पजूसणनइ पवि(वि) स्नात्र पूज मालादिक आरात्रिक करवा झं विघन हुसिह ॥५२॥
तत् पश्चमीतः प्रभुणा विधेयं, षष्ठयां यथा में जिननाथपूजा ।
मभावना-पौषधपालनादि, पुण्यं भवेत्राय ! तव प्रसादात् ॥५३॥ भगवन् ! पसाउ करी पजूसणन पांचमि थकुं छदुिई करउ । जिम स्नात्रपूजा प्रभावना पौषध प्रमुख पुण्य करीय कराई ॥५३॥
राजभिदं नैव भवेत् *कदाचित, यत् पञ्चमीरात्रिविपर्ययेण ।
ततश्चतुथ्यो क्रियतां नृपेण, विज्ञप्तमेवं गुरुणाऽनुमेने ॥५४॥ गुरु कहवा लागा, अहो राजन् ! पंचमीनी रात्रि अतिक्रमी गई तु पछह पजूसण सर्वथा न हुइ । पछई राई कहिउँ तु पछह चउथिई पजूसण करउ । पछइ गुरे ते वात मानी । सिद्धां[त] माहिली वात सांभरी तेह भणी मानिउँ ॥५४॥
स्मृत्वेति चित्ते जिनवीरवाक्यं, यत् सातयानो नृपतिश्च भावी ।
श्रीकालिकार्यों मुनिपश्च तेन नृपाग्रहेणापि कृतं सुपर्व ॥५५॥ १० शुक्लपक्षे P। • अविचल मेरा • इति कोकः P आदर्शटिप्पण्याम् ।
"Aho Shrutgyanam'