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कालिकाचार्यकथा |
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अथ एतला अनंतर श्रीकालिकसूरि आपणुं शरीर कादवि खरडी त्रिक चतुष्क चाचरि भ्रमण करतु हीड | मुखि इसिउं बोलद | विशाल (ला) नगरीमा हि श्रीगर्द भिल्ल राजा राज्य पालइ छइ तु किसिउं ? अथवा ए रायनई अंतःपुर रुड छतु किसिउं ? इसि वच[न] नगरी भमतु बोलइ । प्रथिलपणई करी बाह्य प्रकारिहूं अंतरंग साजापणुं छइ ॥ २२ ॥ इत्यादि जल्पन्तमसत्प्रलापं, मुनीश्वरं वीक्ष्य व्यजिज्ञर्पस्तम् ।
नृपं कुलामात्यवरा वरेण्यं, जातं न राजन्निति मुच साध्वीम् ||२३||
श्रीकालिकसूर प्रथिलपण बोलतु सांभली रायना घरना कुलामात्य रायनई बीनववा लागा | अहो राजन् ! अम्हो ताहरा राज्यना कुलामान्य बीनवुं छउं । वीनती अवधारि । ए साध्वी महासती मूंकि परही । तुं ज्ञा (न्या) यवंत राजा तुझ 1 रहई ए साध्वी राषि (खि) वा युक्त नही, परही मूंकि ॥२३॥
शिक्षा ददध्वं निजपितृ-बन्धु-पुत्रेषु गच्छन्तु ममाग्रदृष्टेः ।
श्रुत्वेति सूरित एव सिन्धोर्नद्यास्तटं पश्चिमपार्श्वकुलम् ||२४||
राय (अ)मात्य प्रति कहवा लागु, अहो अमात्यो ! तम्हो आपणइ धरि जई बेटा बेटी प्रमुख कुटुंबनई शीषा (स्खा)मण दिउ । माहरी दृष्टि आगलि थका परहा जाउ । रहिसिउ तु नही भला । आ (अ)मात्ये पाछा आवी आचार्यन जी गाविउँ । ति बार पूईि श्रीकालिकसूरि भले शकुने चाल्या | पश्चिम दिसिहं सिंधु नही (दी) नई पश्चिम दिशिनहं तटि tos his जई रा || २४ ॥
ये तेषु देशेषु भवन्ति भूपास्ते साहय: प्रौढतमस्य तेषु ।
एकस्य सादेः स गृहेऽवसच्च, सदा सुदैवज्ञनिमित्तविज्ञः ||२५||
जेहिं देसि राजान हुई ते राय सविहुनई साहि इंसिउं नाम कही । तिहां छनूं राय मोटा छई ते माहि मोटेर एक साहि छइ तेनह (तेह) नी उलग करवा लागा | श्रीकालिकसूरि ज्योतिष्क समग्र जाणई । निमित्त सर्व जाई ॥ २५ ॥
अनागतातीतनिमित्तभावैर्वशीकृतः सूरखरैः स साहिः ।
भक्ति विधत्ते विविध गुरूणां सर्वत्र पूज्यों लभते हि पूजाम् ||२६||
श्रीकालिकसूरि भाचार्यै अनागत ज्ञान अतीत ज्ञान वर्त्तमान ज्ञाननई कहवई । ते वडु साहि राजा आपण वशि कीधउ | ते साहि गुरुनी भक्ति घणी करइ । एतलई युक्त छइ । जे माहि गुण हुई । रूडे गुणे करी पूज्य सर्वत्र सघल पूजा लहइ ॥ २६ ॥
तमन्यदा कृष्णमुखं विलोक्य, पप्रच्छ साहिं मुनिपः किमेतत् ? । तेनाचचक्षे मम योsस्ति राजा, साहनसाहिः स च भव्यतेऽत्र ||२७||
एकवार आचार्ये साहि राजा काल मरवु दी। जीवतव्यनी आशा गई । इसिउ दीठउ । तिवारई गुरे पूछिउं आज कालमुखा किस्था कारण १ तेणिई साहिईं कहिउं । अम्ह छन्नूं रायतु स्वामी मूलगु साहानुसाहि वड ठाकुर छ सा[हा] नुसाहिनई अम्ह छन्नूं श्रीषा रायना सहस छई ॥ २७ ॥
तेनात्र लेखः प्रहितो ममेति, स्वमस्तकं शीघ्रतरं महेयम् । पश्चाधिकाया नवर्नृपाण, ममानुरूपच्छछ एष भर्तुः ||२८||
५ सदैव Pit
· दानुसा •PI
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" Aho Shrutgyanam"