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श्रीअज्ञातसूरिविरचिता चोर हुइ डीलिई चोरी करइ अनई] पुरोहित डोलि भाढीतु पाडणहार कलाली हुइ तेणिई नगरि अहो नागरिक लोको वनवास लिउ तउ छूटउ । बीजी परिई तिहां रहिया वणसीजीइ । किस्या भणी ! जिहां थकुं शरण जोईइ तिहां जि थकु भय ऊपजइ तउ किसिउं कीजइ ! ॥१५॥
नरेन्द्रकन्याः किल रूपवत्यस्तवावरोधे ननु सन्ति बझ्या ।
तपाकृशां जल्लभरातिजीर्णवस्त्रां विमुश्चाशु मम स्वसारम् ॥१६॥ महो राजन् ! ताहरी आज्ञाना पालणहार अनेक राजान अनेक व्यवहारीया प्रमुख लोक तेहनी कन्या धणीइ सम्हारी साझामाहि छई । तेह, पाणिग्रहण करि । पुण ए महासती तपिई करी दूबली श्लेष्मां करी भरी अतिजीर्णवस्त्रानी पहिरिणहारि माहरी बहिनि मूंकि ॥१६॥
निशम्य सूरीश्वरवाक्यमेतन्न भाषते किश्चिदिह सितीशः ।
श्रीकालिकाचार्यवरोऽथ संघस्याग्रे स्ववृत्तान्तमवेदयत् तत् ॥१७॥ श्रीकालिकसूरिनुं वचनं सांभलीनई राजा गर्दभिल्ल वलकु(तु) ऊतर न आपइ न बोलइ । श्रीकालिकसूरि पछइ. पोसाला भाबी समग्र सपल संघ तेडाबीनइ तेह आगलि सघल वृत्तांत्त कहिउ ॥१७॥
संघोऽपि भूपस्य सभासमक्षं, दक्षं वचोऽभाषत यन्नरेन्द्र ! ।
न युज्यते से यदिदं कुकर्म, कर्तुं प्रमो! पासि पितेव छोकम् ॥१८॥ ति वार पूठिई श्रीसंघ सघल मिली रायनी समां गिउ । राय वीनविउ, अहो नरेंद्र ! तुं प्रजालोकनई पितातणी परिपालमै । तुझ रहिं ए कुकु(क)र्म करदा युक्तं नहीं । तुझ रहि ए अन्याय करवा युक्तु नही ॥१८॥
इति युवाणेऽपि यथार्थमुच्चैः, संघे न चामुञ्चदसौ महीशः ।
महासती तामिति तनिशम्य, 'कोपेन सन्धां कुरुते मुनीशः ॥१९॥
श्रीसंघिई रायनई वीनती कीधी 1 यथार्थ वात कही । पुण राजाई सर्वथा न की। राजा वलतु स्तरइ न दिह । पद श्री स]धिहं तिहां थका भावी गुरु वीनव्या । पछह गुरे श्रीसंघ भागलि प्रतिज्ञा कीधी ॥१९॥
ये अत्यनीका जिनशासनस्य, संघस्य ये चाशुभवर्णवाचः ।
उपेक्षकोडाइकरा धरायां, तेषामहं यामि गति सदैव ॥२०॥
जे मनुष्य जिनशासन ऊपर वैरभार वहई महाप्रत्यनीक हुइ । अनइ जे वली जिनशासान]नां अवर्णव बोलइ जे जिनशासनि उड्डाह करई तेहया मनुष्यनई सीपा(खा)मण देउं । तेहनी गतिई सदाइ जाउं तेहर्नु निवारव करउं ॥२०॥
यथेनमुर्थीपतिगर्दभिल्लं, कोशेन पुत्रैः प्रबलं च राज्यात् ।
नोन्मूलयामीति कृतप्रतिज्ञो, विधाय वेषं महिलानुरूपम् !॥२१॥ माहरा जाण्यानुं प्रमाण जु ए गर्दभिल्ल राजा बेटासहित भंडारसहित अंतेउरसहित राज्य पालतु उन्मूली करी न लांखू तु कहिन्यो । इसी प्रतिज्ञा श्रीसंघ आगलि कीधौ । प्रतिज्ञा कीधा पूठिई श्रीकालिकसूरे गहिलानु वेस कीधु ॥२१॥
भ्रमत्यदः कर्दमलिप्तगात्रा, सर्वत्र जल्पन् नगरी विशालाम् । श्रीगर्दभिल्लो नृपतिस्ततः किं, भो ! रम्यमन्तःपुरमस्य किंवा ॥२२॥-त्रिभिर्विशेषकम् ॥
सीताद यथा चन्दनातिवृष्टात् ॥ लम्पटापरापे गर्दभिल्लं प्रत्वा नोत्पाटयेऽहं तदनु च कालिकाचार्य एषः-इति भावार्थः ।। ४ युग्यम् PI
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