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श्रीजयानन्दसूरिविरचिता अह पालिज्जई सम्म, संजममिअ सिक्खिऊण निअसीसा । कयनवरिसमेआ, विहारिआ तेण अन्नत्य ॥३१॥ अह चिंतह मुरिवरो, जाणेई जामि तायपासम्मि । महई लज्जा हियएँ, सा गंतुं कहवि नो देइ ॥३२॥ जे पुण पिसुणा ते, चञ्चिअ व्य महकञ्चडं करिस्सति । तह[?] गहिअवओ जो मुत्तु सरस्सई आगओ सुभडो ॥३३॥ तो पिउपासि न जामि ति निच्छिऊणं पुणो वि चिंतेइ । विज्जाबलं तु जेसि, पराभयो होइन हु तेसिं ॥३४॥ विन्जाइ हुंति मित्ता, जिप्पंति अ सत्तुणो वि विज्जाए । विज्जालको वि जाणं, नमति सम्वे चि नर ताणं ॥३५॥ चोरेहिं जा न घिप्पड़, अग्घइ गुणवंतयाण गेहेमु । सा विज्जा मह विउला, तेणें विदेसो वि नियदेसो ॥३६॥ अह सूरी सगकूले, वच्चइ इगसारिणो समीवम्मि । भण्णइ साहणुसाही, राया जहिं साहिणो सेसा ॥३७॥ सूरी सहाइ वैचइ, बुल्लइ तं जं सुहाइ सव्वस्स । एवं वयणरसेणं, रंजइ रायप्पमुहलोअं ॥३८॥ भणइ निवो धन्नोऽहं, जं पत्तो सुपुरिसो तुम इत्य । सोहइ तइम्ह रज्जं, मग्गसु तं जेण तुह कज्जं ॥३९॥ अह जंपइ मूरिचरो, तुज्झ ममत्वेण सधमचि लद्धं ।
मग्गिस्समवसरेऽहं, छुहाइ अन्नं पि पीइकरं ॥४०॥ अह
पेसह एअ छुरीए, ससिरम्मि अ आगयम्मि पहुछेहे । विच्छायमुहो साही, पुढो गुरुणा कहइ सव्वं ॥४१॥ अह भणइ गुरू नरवर !, किज्जा मंतो वि को वि अप्पणए । कणगाइदाणओ तह, किज्जइ जह देव ! जीविज्जइ(ज्जा) ॥४२॥ स भणइ निमुणसु सुपुरिस ! जाणासि तुमं न अम्ह निवचरियं । विसमो स भूमिपालो, रुटो पुण जेसि तर्हि कालो ॥४३॥ गिन्देइ जं गहं तं, कह वि न मिल्हेइ गुरु अगव्बंधो । सामत्येणं सीमालए अ गंजेइ अगंजे ॥४४॥ अम्हसमनिवइलक्खा, नैमंति एअस्स विहिअनिरक्खा । न मिडइ रणम्मि कोई भंजइ नामेण भडकोडी ॥४५॥
ब्जइ सम्म D2 । २२ दहई P2। २३ •ए सो गL1DI) २४ • सुहहो LI DI D41 १५ •ण वि नियदेसो वि नियवेसो D21 २६ • बुच्च ° L1 D1 D4 1 २५ •णाहि तु • PILI D2. २५ न संति LI D2 D41 २९ निवरक्खा P11
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