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८॥
अज्ञातसूरिविरचिता गुरु भणइ भावदोसो, न तुम किंतू पमायदोसोऽयं । तो अन्नदिणे वालुअपत्थगदिद्रुतओ भणिओ ॥९८॥ मा वहसु वच्छ ! गवं, अहयं पंडिओ इहं भुवणे । आसवन्नुमयाओ, तरतमजोगेण मइविभवा ॥१९॥
इथ अच्छेरयचरिओ, कालगमूरी महीइ विहरेइ । सीमंधरजिणपासे, इभो निगोए हरी मुणिउं ॥१००॥ पुच्छइ भयवं भरहे वि, को वि एए जिए विआरेइ ? । पहु भणइ कालगज्जो, जहारिहं तं विआरेइ ॥१०॥ तो हरि भणरूवं, काउमिहागम्म पुच्छइ निगोए । 'गोला य असंखिज्जा,' इवाइ गुरु वि साहेइ ॥१०२॥
....................... च्छिमोऽणसणं । भण मह किचिअ आउं तो ................ ॥१०३॥ भि अथरे किं चूणे, तस्स आउ गुरु भगइ ।
........... ॥१०४॥ निरइसए वि हु काले नाणं विप्फुरद ........ ।
नाह ॥१०५|| जेणुन्नई तए पश्यणस्स, संघस्स कारणे विहिआ। ........................................... ॥१०६॥ इय थोऊण सुरिंदो, सुमरितो मुरि-निम्मलगुणोहं ।
आकासे ................................... ॥१०७ तो कालगमूरी वि हु, जाणित्ता निअयआर-परिमाणं । संलेहणं विहेउं [ अणसणविहिणा दिधं पत्ता) ॥१०॥
[कालिका]चार्यकथा समाप्ता ॥
... त्रुटितमिह पत्रमर्दम् ।
"Aho Shrutgyanam"