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श्रीधर्मघोषसूरिविरचिता नियसीससीससागरचंदसमीवे सुवनभूमीए । पत्तो तत्तो सूरी, दूरीकयमोहतिमिरोहो ॥७॥ 'अन्मुद्विज अपुन्वं दटुं' इय वयणओ अ थे0 ति । तेणऽणभु(भुट्ठिय पुट्ठो, कुओ त्ति अजो ! भणइ दूरा ॥७६॥ धक्खाणते पुट्ठो, दिडा मह गुरु ति भणइ ददं । तह वक्खाणं मे केरिसं ति भणिए भणइ लडें ॥७७॥ अतिहि ति ठविध सो, पुच्छ कि पि विसमं ति सायरेणुत्तो । जंपइ अणिच्चयं मे, साहसु तो सायरो मणइ ॥७॥ पच्चूससिद्धसायं, विणस्सिरनाइ चिरसनिष्फन्ने । का सारया सरीरे, कुण(करे ?)इ धर्म सया सारं ॥७९॥ गुरुराइ नत्थि धम्मो, पमाणऽविसओ ति खरविसाणं च । पञ्चक्खाइ अगिज्झो, जं सो तो तम्गहेणालं ॥८॥ अइबुड्ढो को वि" नरो, पियामहसैमु ति सायरो धणिय । विम्हयरसायरो गव्चसायरो सायरं भणइ ॥८१॥ जइ नस्थि कई धम्मो, जइ धम्मो कहव नत्थि अह धम्मो । अभुवगमा परेसि, नणु सझं अम्ह सिद्धते ॥८२॥ पञ्चक्खा तह धम्मा, धम्मा वि सुहासुहाइफलदाणा । ता मुत्तुमहम्मं आयरेण धर्म चिय करेह ॥८३॥ इय ते तत्तवियारेण, निति खणमिव दिणे मुणेइ इओ । ते वि गुरुमदछ पए, तरयं पुच्छंति सुन्नमणा १८४॥ स भणइ भे किं न सुमा, सुकुमालिय-कूलवालयाण गई ।
आयवणाइ पराण वि, असहा गुरुआणरहियाणं ॥८५|| अवि य
सिआ हु सीसेण गिरि पि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविभो न भक्खे । सिआ न भिदिज्ज व सत्तिअग्गं, नयावि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥८६॥ सनिबंधे दीणमुहे, भणह ति गुरू गया पसीसंते ।। तो चलिया ते भणिरा, मग्गे कालयगुरू जंति ॥८७॥ अज्जो इंति गुरुगुरू, सागरपुठ्ठ त्ति कहइ मे वि सुअं । अह ते पत्ता लहु सागरुट्टिया चिंति कत्थ गुरू ? ||८८॥ जा मणइ सो ससंको, न विणा अजं इहागओ को पि । ताव बहि महीपत्ता, नमिआ सहरिसमिमेहिं गुरू ॥८९॥ तह सागरो वि खमह ति, जंपिदो नभइ पुण पुणो सुगुरुं ।
तो गुरुणा अणुसिठ्ठा, सव्वे वटुंति ते सम्मं ॥९॥ २४ घेरो ति P1 २५ वि इमो वि.P। २६ 'समो ति PM
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