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________________ प्रकाशकीय वक्तव्य राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के ९वें रत्नमणि के रूप में 'फक्किका' नामक व्याख्यासमन्वित न्यायशास्त्र का प्रसिद्ध पाठ्यग्रन्थ तर्कसंग्रह प्रकाशित हो रहा है । महाराष्ट्रीय महाविद्वान् अन्नंभट्ट का बनाया हुआ तर्कसंग्रह नामक न्यायशास्त्रविषयक पाठ्यग्रन्थ सुप्रसिद्ध है । संस्कृत न्यायशास्त्र का प्रत्येक विद्यार्थी प्रायः इस ग्रन्थ से सुपरिचित है । इस छोटे से सूत्रात्मक ग्रन्थ पर, ग्रन्थकार ने स्वयं अपनी व्याख्या बनाई है - जिसका नाम तर्कसंग्रह दीपिका है। इस दीपिका पर अनेक विद्वानों ने अनेक व्याख्याएँ लिखी हैं। इनमें प्रस्तुत प्रकाशन में संमीलित फक्किका नामक व्याख्या भी एक है । इस व्याख्या के कर्ता राजस्थान के एक प्रसिद्ध जैन यतिपुङ्गव हैं।। अन्नभद्रविरचित तर्कसंग्रह का पठन-पाठन जैसे ब्राह्मण वर्ग में समादरणीय रहा है वैसे ही जैनवर्ग में भी आदरणीय रहा है। प्रायः प्रत्येक न्यायशास्त्राभ्यासी जैन विद्वान का शास्त्रप्रवेश इसी ग्रन्थ के अध्ययन से प्रारम्भ होता है। इस कारण महोपाध्याय क्षमाकल्याण गणि ने प्रस्तुत ग्रन्थ पर यह फक्किका नामक अपनी स्वतन्त्र व्याख्या लिखने का प्रयत्न किया है। यह व्याख्या अभी तक अप्रकाशित रही है अत: इसको प्रकाश में लाने का हमारा विचार हुआ और इसका संपादन कार्य ईस विषय के बहुत ही सुयोग्य और मर्मज्ञ विद्वान् डॉ. जितेन्द्र जेटली को दिया गया । डॉ. जेटली न्यायशास्त्र के एक विशिष्ट अभ्यासी हैं । इनने संस्कृत में बनारस की न्यायाचार्य की परीक्षा दी है और इंग्रेजी में बंबई युनिवर्सिटी की एम. ए. परीक्षा पास की है । वैशेषिक दर्शन के सर्वविश्रुत एवं प्रधानग्रन्थ प्रशस्तपादभाष्य पर जो न्यायकन्दली नामक व्याख्या है उस पर नरचन्द्रसूरि नामक जैनाचार्य ने बहुत ही पांडित्यपूर्ण टिप्पनक लिखे हैं। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रसिद्ध और अज्ञातसा है। राजस्थान के प्राचीन नगर जेसलमेर में जो विख्यात जैन ग्रन्थभंडार है उसमें इस टिप्पणक की एक बहुत प्राचीन एवं जीर्ण शीर्ण पोथी सुरक्षित है। उसका विशेष अध्ययन एवं आलोडन करके प्राध्यापक जेटलीने उस विषय में एक महानिबन्ध (थिसीज) लिखकर, बंबई युनिवर्सिटी में पीएच. डी. की डिग्री के लिये उपस्थित किया जिसके फल स्वरूप उक्त युनिवर्सिटी से इनने डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है। इस प्रकार इनकी अपने अभ्यसनीय विषय में विशिष्ट योग्यता के अनुरूप ही प्रस्तुत ग्रन्थ का संपादन हुआ है यह कहने में मुझे प्रसन्नता होती है। ग्रन्थ, ग्रन्थकार और ग्रन्थ के संपादन के विषय में संपादक विद्वान् ने अपनी प्रस्तावना में, संक्षेप से परन्तु सुन्दर रीति से, सब बातों पर विचार-विमर्श किया है जिससे पाठकों को प्रस्तुत ग्रन्थ का योग्य परिचय प्राप्त हो जायगा। जहाँ तक हमारा अध्ययन है उसके आधार पर ज्ञात होता है कि महोपाध्याय क्षमाकल्याण गणी राजस्थान के जैन विद्वानों में एक उत्तम कोटि के विद्वान् थे और अन्य प्रकार से अन्तिम प्रौढ पंडित थे । इनके बाद राजस्थान में ही नहीं अन्यत्र भी इस श्रेणिका कोई जैन विद्वान् नहीं हुआ। इनने जैन यतिधर्म में दीक्षित होने बाद, आजन्म अखण्डरूप से साहित्योपासना की, जिसके फलस्वरूप राजस्थानी एवं संस्कृत में छोटी बड़ी सेंकडों ही साहित्यिक रचनाएँ निर्मित हुई । साहित्यनिर्माण के अतिरिक्त तत्कालीन जैन समाज की धार्मिक प्रवृत्ति में भी इनने यथेष्ट योग दिया जिसके फलस्वरूप, केवल राजस्थान में ही नहीं परन्तु मध्यभारत, गुजरात, सौराष्ट्र, विदर्भ, उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल जैसे सुदूर प्रदेशो में भी जैन तीर्थो की संघयात्राएँ, देवप्रतिष्ठाएँ और उद्यापनादि विविध धर्मक्रियाएँ संपन्न हुई । इनके पांडित्य और चारित्र्य के गुणों से आकृष्ट हो कर, जेसलमेर, जोधपुर और
SR No.009511
Book TitleTarkasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2004
Total Pages55
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size1 MB
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