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________________ भवनिव्वेओ प्रभु ! संसार के पागलपन से मुक्ति दो । वह बहुत सुखी है। उसे रहने के लिए बहुत सुन्दर जगह मिली है। उसे समयपर अपनी रुचि का भोजन मिलता है। ठंडी और गर्मी में उसका पूरा जतन किया जाता है। उसकी सेवा में दो नौकर तैनात है। घर के सभी सदस्य उसका बहुत ध्यान रखते हैं। सभी लोग उसकी बहुत प्रशंसा करते हैं। उसका स्वभाव बहुत अच्छा है। उसके पास सभी सुविधाएँ हैं। उसके पास सम्पूर्ण सलामती है। फिर भी वह अपने आपको दुःखी मानता है। वह सोने के पिंजरे में बन्दी बना हुआ पक्षी है। वह हररोज पिंजरे के बाहर देखता है। सामने खड़े हुए पेड पर उसके जैसे कई पक्षी आते है, मीठा कलरव करते हैं, पंख फडफडाते हैं और उड़ जाते है। यह दृश्य देखकर उसका हृदय मानो छल उठता है। पिंजरे में वह पंख फडफडाता है जरूर लेकिन उड़ नहीं सकता । नीले गगन की गोद में पंख फैलाकर नीचे फैली हुई सृष्टि का नयनरम्य आनन्द उसे नहीं मिलता। अब तो उसे सुविधा भी अच्छी नहीं लगती । वह सलामती को तिरस्कृत करता है। -& उसे तो सब कुछ छोड़कर सिर्फ स्वतंत्रता ही अच्छी लगती है। वह उसे पाना चाहता है। पंख फैलाकर मुक्त नीलाम्बर में उड़ने की स्वतन्त्रता चाहता है। हे प्रभु ! मुझे रहने के लिए सभी सुविधाओं से भरपूर घर मिला है। अच्छा भावनाशील परिवार मिला है। आर्थिक सद्धरता भी अच्छी है। समाज में नामना भी अच्छी मिली है। सुविधा और सुरक्षितता में भी कोई कमी नहीं है। फिर भी मैं सुखी नहीं हूँ । आज दिन तक मैं यह नहीं समज पाया था कि मैं सुखी क्यों नहीं हूँ ? लेकिन, आपको देखने के बाद मैं अपना दुःख बहुत अच्छी तरह से समजने लगा हूँ। आज तक "सुविधा और सुरक्षितता" ही सुख है, यह मानकर मैं प्रयत्न करता रहा । उसमें मैं सफल भी रहा, लेकिन उसके बदले में मैं अपनी स्वतन्त्रता खो बैठा। सुविधा और सलामती को सुख मानने की मेरी भ्रमणा इतनी गाढ़ हो गई कि मैं मेरी वास्तविक स्वतन्त्रता तरफ बेध्यान हो गया । आपका दर्शन करके मेरी अन्तरात्मा जागृत हो गई है। उसे स्वतन्त्रता की पहचान हो गई है। लेकिन हे प्रभु! मेरा ये पिंजर मुझे इतना अच्छा लगता है कि कोई मुझे पिंजरे की बाहर निकाले तो भी अच्छा नहीं लगता । 191 मुझ पर इतनी हद तक पागलपन छाया हुआ है कि कोई मुझे पिंजरे से बाहर निकाले तो भी मैं अपने आप वापस आकर पिंजरे में बैठ जाता हूँ। अन्य लोग पिंजरे से बाहर आने के लिए उत्सुक है। जबकि मैं पिंजरे में रहने के लिए तत्पर हूँ। लाख समजाने के बावजूद भी ये अनादि का अभ्यस्त मन मानता ही नहीं है। एक और आतमा इस बन्धन से छुटकारा चाहती है तो दूसरी ओर मन बन्धन चाहता हैं । लगता है इसी असमंजस में ही मेरी आयु पूरी हो जाएगी। इसलिए हे प्रभु! दुविधा में फँसा हुआ हूँ, मेरी आयु पूरी होने से पहले मुझे इस पिंजर में से छुटकारा दे दो । कम से कम इस बन्धन को आलम्बन मानने का पागलपन दूर कर दो यही मेरी विनती है। इतनी कृपा जरुर करना । -4
SR No.009506
Book TitleChahe to Par Karo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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