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________________ जगगुरु ! हे जगत के गुरु आपकी सदा जय हो ! हे परमात्मा । आप इस जगत के सभी जीवों के क्योंकि गुरु हो । आप जीवमात्र के मित्र हो । आपने तमाम जीवों के हित की कामना की है और वो भी किसी अपेक्षा के बिना । गुरु उसीको कहते हैं, जो बदले की भावना रखे बिना अपना सर्वस्व देता है। "मित्रता" और "गुरुता" दोनों में एक समानता है। दोनों देते है, लेकिन मित्र अपेक्षा के साथ देता है, और गुरु अपेक्षा के बिना देता है । हे परमात्मा ! आपने जगत को सर्वस्व दिया है। सबकुछ देकर आप जगत्गुरु बन गये हो । जबकि सबकुछ पाकर भी मैं कुछ नहीं बन सका । आपकी तरह जगत्गुरु बनने की कल्पना मैं स्वप्न में भी नहीं कर सकता। मुझमें ऐसी योग्यता कहाँ है ? मैं जगत्गुरु तो क्या ? गुरु भी नहीं बन सकता । हाँ! आपका भक्त बनने की योग्यता और सामर्थ्य जरूर मेरे पास है। -३ लेकिन भक्त बनना भी कहाँ आसान है ? शुद्ध, शांत, समर्पित और सरल व्यक्ति में ही भक्त बनने के लक्षण है। भक्त बनने के लिए तो परमात्मा को अपना दिल देना पड़ता है। जैसे अग्नि में हाथ रखकर दाह से बचना असम्भव है, जैसे कूड़े-कचरे में हाथ डालकर गंदकी से बचना असम्भव है, वैसे ही दिल में संसार रखकर भक्ति करना भी असम्भव है। संसार - सागर में आसक्त बनकर भी मैं आपका भक्त बनूँ ये असम्भव है। हे प्रभु! शायद आपका और मेरा गणित कहीं अलग पड़ता है। आपका मत यह है कि मेरा सारा सुख जगत के सभी जीवों को मिले। और मेरी भ्रामक मान्यता यह है कि जगत् का सारा सुख मुझे मिलें । आप अपना सब कुछ जगत पर लूटा रहे हो, और मैं लूटने में व्यस्त हूँ । हे प्रभु ! आप मेरी इस गलती को पलट दो । लेनेवाले से देनेवाला बढ़कर है मैं इस सनातन सत्य को समज सकुँ । ऐसी मुझे समज शक्ति दो । हे जगत्गुरु ! आप मेरे गुरु बनो, ऐसी हृदयपूर्वक की प्रार्थना । ~8~ होउ ममं तुह पभावओ भयवं भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे यह तेरह वरदान प्राप्त हो । शीशे से बना हीरा भले चमकीला हो, उसका मूल्य शून्य होता है। नकली मोती भी भले चमकीला हो, मूल्यहीन है। हीरे की चमक और मोती की चमक तभी मूल्यवान बताई जाती है, जब वे हीरे-मोती असली हो । ++ "चमक" हीरे-मोती का प्रभाव है। जबकि हीरे-मोती का स्वभाव अलग ही है। कुशल जौहरी ही उसको परख सकता है। इस सत्य को हम अच्छी तरह से पहचानते हैं, और इसलिए हीरो-मोती की पसंदगी करते समय हम स्वभाव को छोड़कर सिर्फ प्रभाव से प्रभावित होते नहीं है। प्रभु ! आपके पास आने के बाद आपके प्रभाव से अतिरिक्त आपके स्वभाव की मुझे अनुभूति हो ऐसी मेरी अंतःकरण पूर्वक भावना है। आपकी वीतरागता तक हमें पहुँचना है। इसलिए हमारे सुखशील स्वभाव को वीतरागता में पलट दें, ऐसे आपके प्रभाव का हमें अनुभव करना है। हमारी यह इच्छा सफल हो ऐसी हमारी आपसे प्रार्थना है। 141
SR No.009506
Book TitleChahe to Par Karo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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