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concludes, the slave had in himself as an original possession the knowledge of which he is suddenly made conscious. Thus "teaching" is a process of directing the attention of the pupil to which he already knows. The teacher does not impart information to the pupil. He merely enables the pupil to convince himself of something which he sees for himself. Similarly learning is a process by which the soul becomes reacquainted with what it already knows, or knows, but has forgotten that it knows. Learning, then, is the apprehension of inborn knowledge. It is "to recover of onself knowledge from within oneself."17
ऐसे ही गुरु की चर्चा करते हुए कबीरदास ने कहा है-'गुरु बिन कौन बतावे वाट' प्रो. रानाडे ने बतलाया है कि लगता है कोई अंधेरी राहों में भटकता हुआ सही मार्ग बताने वाले की प्रतीक्षा कर रहा है और वह प्रतीक्षा करने वाला ही शिष्य है एवं सही मार्ग बताने वाला ही गुरु है। वह गुरु, जिसने स्वयं साक्षात्कार कर लिया हो और वही साक्षात्कार करवा रहा है। नानक भी ऐसे ही गुरु की चर्चा करते हुए बतलाया है-मत को भरम भूलै संसार। गुरु बिन कोइ न उतरस पार| व्यास ऋषि ने भी कहा है कि जिन्हें सतगुरु नहीं मिले हैं, उनके वचन प्रेत के प्रलाप के समान हैं। सन्त दादू दयाल ने भी बतलाया है-सतगुरु चरणामस्तक धरणा, राम नाम कहि दूतर तिरणा। प्रो. रानाडे का कथन है कि उपनिषदों के ऋषि भी उस अनिर्वचनीय अनुभव का कथन करने में असमर्थ हैं। केवल प्रकाश दर्शन की सूचना देते हैं, जो आत्मा के स्वरूप में स्थित होने का पूर्वाभास है। कुछ साक्षात्कार कर्ता नाद श्रवण की भी सूचना देते हैं, जैसे शंकराचार्य, सुकरात, प्लेटो, कबीरदास, तुलसीदास आदि। प्रो. रानाडे की दृष्टि में उपनिषद् के ऋषि द्रष्टा थे। इसलिए वे दिखाने में सक्षम भी थे।
ऐसे ही गुरु ऋषभदेव, महावीर और बुद्ध थे। श्रीकृष्ण इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। अर्जुन ने उनसे कहा है कि आप मेरे गुरु हैं, इस विषम परिस्थिति में मेरा मार्गदर्शन करावें। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाघि मां त्वां प्रपन्नम् ।।136
ऐसे गुरु के मिलने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति संभव होती है इसीलिए बतलाया गया है कि
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र यार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विज्यो भूतिर्बुवा नीतिर्मतिर्मम ।।135 चूंकि दोनों जानते हैं कि
सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।। अर्थात् ज्ञानयोग के द्वारा अकर्म एवं निष्काम कर्मयोग की स्थिति बन जाती है और फिर उसे पाने की इच्छा नहीं रहती है क्योंकि जो वह जानता है,
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