________________
अनुसार ज्ञान का विषय एक नहीं दो है। इसी कारण समीक्षात्मक वस्तुवाद को ज्ञान के तीन घटकों वाला सिद्धान्त (Three factor theory of knowledge) कहा जाता है-वे घटक हैं विषयी या ज्ञाता, ज्ञान-विषय या ज्ञेय तथा दोनों के बीच प्रदत्त - विषय का वह रूप जो विषयी को प्रदत्त होता है तथा जिसके माध्यम से विषयी विषय का ज्ञान प्राप्त करता है। इसकी जानकारी वेदांग ने इसके पूर्व ही दे दी है। न्याय ने इसकी पुष्टि अपनी ज्ञानमीमांसीय विवेचनों में कर दिया है। डी.एम. दत्त की 'द सिक्स वेज ऑफ नोईंग और एस. सी. चटर्जी की 'थ्योरी ऑफ नॉलेज' में भी उपर्युक्त समस्याओं का निदान निकाला गया है।
शिक्षा के क्षेत्र में जॉन डिवी की देन प्रशंसनीय है। इनकी दृष्टि में शिक्षा ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है । यथार्थ शिक्षा प्राप्त होने पर शिक्षित व्यक्तियों की आम जनता के प्रति अभिवृत्ति बदल जाती है। इस अर्थ में सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र को ही शिक्षा का सामान्य सिद्धान्त कहा जा सकता है। शिक्षा मानव व्यक्तित्व के लिए अनिवार्य है। अब प्रश्न है कि शिक्षा का स्वरूप क्या है? ज्ञान की सीमा क्या हैं? इन्द्रियानुभव ही वास्तविक ज्ञान है? अथवा अनुभवातीत ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है? इन्द्रियानुभव ही यथार्थ ज्ञान है और इन्द्रिय सुख ही वास्तविक सुख है की अवधारणा के कारण हॉब्स निकृष्ट स्वार्थवादी सुखवादी माने जाते हैं और बेंथम के उपयोगितावादी दर्शन को सूकर का दर्शन (pig philosophy) कहा जाता है और सुकरात एवं प्लेटो के दर्शन को मानवीय तथा श्रेष्ठ दर्शन बतलाया गया है। प्लेटो को पूर्ण ग्रीक का दर्जा मिला है, अन्य को नहीं ।
प्लेटो ने सुकरात की शिक्षा एवं उपदेश को साकार किया है। सुकरात ने अहंकार मुक्त होकर कहा था कि उन्हें परम तत्त्व के विषय में ज्ञान तो नहीं है, किन्तु ज्ञान से प्रेम अवश्य है। इसी प्रेम के कारण सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा है। सुकरात जानते थे कि वे नहीं जानते हैं किन्तु अन्य लोग नहीं जानते थे कि 'वे नहीं जानते हैं' यही सुकरात एवं अन्य दार्शनिकों में अन्तर है। सुकरात की तरह आदिशंकराचार्य ने भी बतलाया है कि अज्ञानी ही गलती करते हैं, ज्ञानी नहीं। शंकर रामानुज और सुकरात एवं प्लेटो की दृष्टि में इन्द्रियानुभव नहीं बल्कि अनुभवातीत ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है और यही ज्ञानमीमांसा की मीमांसा है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी बुद्धि के जगह अन्तर्बोध अथवा अन्तश्चेतना को अधिक महत्त्व दिया है।
सीखने का अर्थ एवं प्रक्रिया, साथ ही साथ ज्ञान की मौलिक स्थिति की चर्चा करते हुए सुकरात ने बतलाया है कि गुरु शिष्य को कोई नवीन ज्ञान नहीं देता है बल्कि उसकी आवृत बुद्धि को अनावृत कर देते हैं। इस सम्बन्ध में सी. ई. एम. जोड ने ठीक ही लिखा है कि, "Socrates does not, that is to say, tell him the answer. Socrates's role is that of a cross-examiner whose object is to turn the attention of the examinee in the direction of an answer which he must see for himself or not at all. Evidently, therefore, socrates
154