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वेदों के शुद्ध उच्चारण और पाठ के लिए शिक्षा साहित्य का निर्माण हुआ, भाषा को वैज्ञानिक शैली प्रदान करने के लिए व्याकरण की व्यवस्था की गई। इसके मुख्य एवं प्रभावशाली चिन्तक को पाणिनि के नाम से जाना जाता है । तीसरी सदी ई. पूर्व में काव्यायन ने पाणिनि के सूत्रों के आधार पर वर्तिका का प्रणयन किया ।
कल्पसूत्र साहित्य के तीन भाग हैं औतसूत्र गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्र | श्रौतसूत्रों में वैदिक युगीन यज्ञों और वर्गीकरण का समावेश है। गृहयसूत्रों में गार्हस्थियक संस्कार, अनुष्ठान, आचार-विचार और कर्मकाण्ड का वर्णन है तथा धर्मसूत्रों में धार्मिक नियमों, राजा प्रजा के कर्त्तव्य और अधिकार, सामाजिक वर्ण प्रधान भेद का वर्णन किया गया है। वर्णाश्रम आदि विभिन्न व्यवस्था से संबंधित विधाओं का उल्लेख है। इस प्रकार शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निररुक्त, छन्द एवं ज्योतिष के बीच परस्पर पूरक का सम्बन्ध है।
इस अन्योन्याश्रित संबंध की विवेचना प्राचीन एवं नव्य नैयायिकों ने अपने-अपने ढंग से किया है। पाणिनि के अनुसार व्याकरण वेद का मुख है, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त श्रोत्र, कल्प हाथ, शिक्षा नासिका और छन्द दोनों पाद हैं अर्थात वेद की ज्ञानमीमांसीय चेतना के लिए व्याकरण शिक्षा, ज्योतिष, निरुक्त है तो कर्ममीमांसा के लिए कल्प और छन्दशास्त्र हैं । विट्गेंश्टाइन के अनुसार अधिकांश दार्शनिक समस्याएं वास्तविक नहीं हैं। वे केवल व्याकरणात्मक या भाषिक भ्रान्तियां हैं। इन भ्रान्तियों का निराकरण काव्यायन की वर्तिका से दूर की जा सकती है विट्गेंश्टाइन की दृष्टि में दार्शनिक समस्याएँ बौद्धिक रोग या संप्रत्यात्मक बीमारी है। दर्शन का कार्य इनका उपचार करना या इनसे मुक्त होना है। विट्गेंश्टाइन की दृष्टि में दर्शन का वास्तविक लक्ष्य इन भाषाजनित भ्रांतियों से मुक्त होना है। 12 यदि विटगेश्टाइन पाणिनि सूत्र एवं वर्तिका का अध्ययन करते तो निश्चित ही बीमारी को वे दूर कर देते किन्तु वे ऐसा नहीं कर सके। रसेल के वर्णनात्मक ज्ञान एवं परिचयात्मक ज्ञान की विवेचना भी नव्य नैयायिकों ने अपने ढंग से इनके पूर्व ही कर दी है। यदि मूर और रसेल उनका अध्ययन करते तो निश्चय ही सामान्य बुद्धि की सीमा से परे ज्ञान का अनुभव हो जाता। हुर्सल, सार्त्र आदि की फेनॉमेनॉलॉजिकल ज्ञान मीमांसा के लिये इतना कुछ प्रयत्न करना नहीं पड़ता। जी.ई. मूर की दृष्टि में इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है और इन्द्रियानुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान निश्चित नहीं होता बल्कि संभाव्य होता है जबकि वेदांगों के द्वारा प्राप्त ज्ञान निश्चित एवं यथार्थ होता है।
होल्ट के अनुसार वस्तुवाद या वास्तववाद ही समाप्त हो रहा था तथा उसके स्थान पर सर्ववस्तुनिष्ठतावाद उजागर हो रहा था। नव वस्तुवाद ज्ञानमीमांसीय एकवाद का सिद्धान्त है, उसकी मुलोक्ति है जो हम देखते हैं, वह पूर्णातया वही है “जो वह है" । फिर इसके बाद समीक्षात्मक वस्तुवाद का सिद्धान्त सामने आया। यह ज्ञानमीमांसीय द्वैतवाद का उदाहरण है। इसके
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