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बोसान्क्वेट, जोआकिम आदि निरपेक्ष प्रत्ययवादियों के अनुसार मनुष्य एक सर्वसमावेशी सम्पूर्ण है, जिसके अन्दर सभी विविधताएँ सम्मिलित हैं, फिर भी उसका स्वरूप एक शुद्ध इकाई का स्वरूप है। विविधताएं इस सम्पूर्ण शुद्ध इकाई से अलग रहकर अवास्तविक हो जाती हैं। साधारण मानवीय ज्ञान एक-एक वस्तु का उसके पृथक् विशिष्ट रूप में ज्ञान होने के कारण असत्य माना जाता है। वास्तविकता का, उसकी शुद्ध एक रूप समग्रता में दिया गया ज्ञान ही सत्य कहा जा सकता है। यह ज्ञान निरपेक्ष ज्ञान है। मनुष्य का ज्ञान आंशिक एवं सापेक्ष होने के कारण असत्य है। केवल निरपेक्ष ज्ञान ही सत्य होता है।
किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण से मानवीय ज्ञान अंशतः सत्य और अंशतः असत्य होता है। जो ज्ञान सापेक्षतः अधिक समावेशी, अधिक व्यापक एवं अधिक व्यवस्थित होगा, वह अधिक संगत माना जायेगा तथा उसे अधिक सत्य कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए मनुष्य से ईश्वर अधिक सत्य है। ब्रैडले आदि विचारकों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। उसी प्रकार सापेक्षता कम समावेशी व्यवस्थित ज्ञान सापेक्षतः कम सत्य कहलायेगा। इस प्रकार सत्यता में मात्रा भेद संभव है।
तार्किक अनुभववादियों में न्यूरैथ एवं डेम्पेल जैसे विचारकों ने भी इस सिद्धान्त (सामंजस्यवाद) का समर्थन किया है। इनके अनुसार किसी भी प्रतिज्ञप्ति की सत्यता सामंजस्य पर आधारित है। किन्तु यह सामंजस्य किसी परिकल्पनात्मक ज्ञान के साथ है। यह मत कुछ अधिक सुबोध, सरल तथा साफ-सुथरा प्रतीत होता है।
भारतीय दर्शन में अद्वैत वेदान्त दर्शन में भी इस सिद्धान्त का समर्थन पाते हैं। इनके अनुसार अबाधित होना ही सत्यता का प्रमुख लक्षण है। इसीलिए एस.सी. चटर्जी ने प्रोबलेम ऑफ फिलॉसफी में लिखा है-'"The Vedanta view of truth as uncontradicted experience logically implies the coherence theory of truth."
वेदान्तियों को सत्यता-संबंधी सिद्धान्त को अनिर्वचनीय ख्यातिवाद भी कहा जाता है। इनके अनुसार किसी भी ज्ञान अथवा अनुभव के सामंजस्य की जांच तभी हो सकती है, जब उसका सम्बनध अन्य ज्ञान या अनुभवों से हो। इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान खंड की सत्यता व अन्य ज्ञानखंडों से संगति पर आधारित है। केवल आत्मा का ज्ञान अर्थवाद रूप से स्वतः प्रमाणित, स्वतःसत्य होता है।
यह सिद्धान्त यद्यपि संवादितावाद की प्रमुख कठिनाइयों से मुक्त है। फिर भी इसे दोष मुक्त नहीं कहा जा सकता है। इसके निम्नलिखित दोष हैं-इस सिद्धान्त का मुख्य संप्रत्यय संगति अथवा सामंजस्य है। किन्तु कोई भी सामंजस्यवादी इस प्रकार (संगतिका) समुचित व्याख्या अथवा परिभाषा नहीं दे पाये हैं।
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