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किसी भी प्रतिज्ञप्ति को एक साथ ही सत्य तथा असत्य कहना व्याघातक अथवा विरोधपूर्ण पाते हैं। अतः सत्यता में मात्रा भेद करना अस्वाभाविक एवं अनुचित है। इसीलिए भट्टाचार्य जी ने बतलाया है कि वेदान्तियों की दृष्टि में पूर्ण में भेद या मात्राभेद की बात करना सर्वथा अनुचित है। इसमें शुद्ध एकता अथवा अद्वैत ही सत्य है और अनेकता मिथ्या है। इसीलिए इन्होंने लिखा है-"The Advaitist.....A pure unity cannot admite of any degree either of the truth or of reality. The doctrine of Adhyāsa tells us that our empirical world and our experiences of it are but products of illusion, so that neither experiene, nor its object, can have any truth or reality when viewed from the standpoints of ultimate Truth and Reality."
इस सम्बन्ध में वस्तुनिष्ठ प्रत्ययवादियों की चर्चा करते हुए भट्टाचार्य जी ने बतलाया है कि "In the objective Indialism of Hegel and of Bradley and Bosanquet we have a more plausible view of knowledge in its relation to truth. In Hegelian Idealism which is objective Reality is a rational system." हीगेल से ब्रैडले एवं अद्वैत वेदान्तियों का मत अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। जी.ई. मूर ले उपर्युक्त मत की आलोचना करते हुए बतलाया है कि यदि ज्ञान का विषय ज्ञान की प्रक्रिया से बाह्य कोई अन्य पदार्थ नहीं है तो स्वयं ज्ञान व आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि ज्ञान के बिना ज्ञान का स्वयं अस्तित्व नहीं माना जा सकता और साथ ही आत्मा के बिना आत्मा का अस्तित्व भी अस्वीकार्य है। और अगर पदार्थ के स्वतंत्र अस्तित्व को प्रत्ययवादी अस्वीकार करते हैं तो वे एक आत्मघाती सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। इतना ही नहीं मूर का कहना है कि प्रत्ययवादियों के मुताबिक "सभी संबंध आन्तरिक होते हैं | मूर के अनुसार यह तर्कवाक्य निश्चित रूप से असत्य है।
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