________________
सत्यता के चारों सिद्धान्तों में सत्यता का सामंजस्य सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यह सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा अधिक यक्तिसंगत प्रतीत होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार सत्यता का प्रतिमान संसक्तता (coherenhce) या सामंजस्य है। कोई भी ज्ञान एक तंत्र (system) के सन्दर्भ में ही सत्य या असत्य हो सकता है। ब्रैडले ने ठीक ही लिखा है, "कोई भी सत्य ऐसा नहीं, जो सम्पूर्णत: सत्य है, उसी प्रकार कोई भी त्रुटि ऐसी न होगी जो पूर्णतः मिथ्या है। अब स्पष्ट है कि यदि इस पूरे तन्त्र के साथ उसकी संगति है तब तो वह सत्य कहा जायेगा, अन्यथा असत्य। कोई भी ज्ञान जब इस पूरे तंत्र के साथ संगत हो अथवा इस तंत्र के अन्य अंशों तथा पहलुओं के साथ इसकी परस्पर निर्भरता हो तभी वह ज्ञान सत्य कहा जा सकता है। किसी तन्त्र या उसके अन्य अंशों तथा पहलुओं से अलग होकर कोई ज्ञान सत्य नहीं माना जा सकता है। सत्यता, असत्यता की समस्या सामंजस्यवादी कवियों के अनुसार प्रतिज्ञप्तियों की निजी व्यक्तिगत समस्या न होकर पारिवारिक समस्या है। किसी व्यक्ति को उसके परिवार के सन्दर्भ से पूर्णतः अलग करके बिल्कल अकेले वैयक्तिक इकाई में लेकर पिता, चाचा या दादा आदि रूप में नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह कोई प्रतिज्ञप्ति अपने तंत्र से बिल्कुल अलग होकर सत्य अथवा असत्य नहीं कहा जा सकता है। इसके विपरीत संवादितावाद किसी प्रतिज्ञप्ति को उसकी वैयक्तिक डाकई में लेकर देखता है कि वह अपने द्वारा बोधित तथ्य से संवादी अर्थात् सत्य है या नहीं। इस सिद्धान्त (सामंजस्य सिद्धान्त) के समर्थक, स्पिनोजा, लाइबनीज, हीगेल, ब्रैडले, बोसान्क्वेट, जोसाकिम आदि पाश्चात्य बुद्धिवादी एवं प्रत्ययवादी और भारत में वेदांती विचारक हैं।
सत्यता का सामंजस्य सिद्धान्त विशेषकर प्रत्ययवादियों अथवा अध्यात्मवादियों के द्वारा स्थापित एवं समर्थित सिद्धान्त है। एस.सी. चटर्जी ने लिखा है कि "The coherence theory of truth occupies an important place in idealistic philosophy, especially in Bosanquet. It has also been accepted by certain logical positivists like Neurath and Hampel, But this is a fundamental difference between the Hegelian and the logical positivist form of the coherence thems."
इस सिद्धान्त (सामंजस्यवाद) के अनुसार सत्यता में मात्रा-भेद (degree of truth) किया जा सकता है। सामंजस्य स्वयं एक ऐसा गुण है, जिसमें मात्रा भेद की कल्पना संभव है। यदि 'क' अपने तन्त्र की अधिक प्रतिज्ञप्ति में संगत है, वो निश्चित ही 'क', 'ख' की अपेक्षा अधिक सत्य होगा। मनुष्य द्वारा रचित कोई भी प्रतिज्ञप्ति पूर्णतः सत्य नहीं कही जा सकती है।
इस सिद्धान्त के सभी समर्थकों ने संवादिता को प्रतिज्ञप्तियों या विचारों और तथ्यों के बीच का सम्बन्ध वस्तुओं के बीच नहीं माना है। प्रत्यय सत्य या असत्य नहीं कहे जा सकते हैं। जब प्रत्ययों को सम्बद्ध करके प्रतिज्ञप्तियां बनाते हैं, तभी सत्यता या असत्यता का प्रश्न उठता है।
110