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कथन कि 'मैं प्रसन्न हूं' सत्य है। ग्रीक दार्शनिक अरस्तु ने भी सत्यता -असत्यता की इसी प्रकार परिभाषा दी थी। अतः यह कहना उचित ही है कि जिस प्रतिज्ञप्ति का संवादी तथ्य है, वह सत्य है तथा जिसका संवादी तथ्य नहीं है, वह असत्य है। सत्य अनुभव से स्वतंत्र नहीं है। एच. एम. भट्टाचार्य ने नव्य वस्तुवादियों के मत को दर्शाते हुए लिखा है कि "According to the neorealist though the object is not independent of experience yet it is for all practical purpose the other of knowledge and therefore knowledge which is always an immediate apprehension of the object is, from the epistemic point of view, always true, and there seems to be no provision for the distinction between truth and error in knowledge."
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अनुभव और तथ्य, आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ सम्बन्धी अवधारणाओं को एवं सत्य के कॉपी सिद्धान्त की चर्चा करते हुए भट्टाचार्यजी ने बतलाया है कि "In Dealism in all its phases the facts or the objects, a correspondence to which reduces our ideas to truth, are evidently independent of the ideas and are a multiplicity of entities each of which may have for more qualities and aspects than are revealed in the correspondence. The copy theory of truth tells us nothing definitely about this."
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'मीठापन' एक प्रत्यय है । यह सत्य अथवा असत्य नहीं हो सकता है। किन्तु जब हम इससे यह प्रतिज्ञप्ति बनाते हैं कि आम मीठा होता है, तो वह सत्य या असत्य कहा जा सकता है। इस प्रकार यह समझना गलत है कि संवादिता - सिद्धान्त के मुताबिक सत्यता प्रत्ययों तथा वस्तुओं के बीच संवादिता में निहित है।
सभी वस्तुवादी ही नहीं प्रायः सभी अनुभववादी विचारक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं। अनुभव वादियों के अनुसार प्रतिज्ञप्तियां तभी सत्य होती है जब इनके संवादी तथ्य वास्तविक जगत् में भौतिक या मानसिक जगत् में उपस्थित हो ।
बीसवीं शताब्दी के वस्तुवादी विचारकों में जी.ई. मूर और बी. रसेल संवादिता सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हैं। जी. ई. मूर सत्यता के प्रतिज्ञप्ति का विशेषण अथवा गुण मानते हैं एवं प्रतिज्ञप्ति तथा सत्य होती है जब इसके संवादी के तथ्य वास्तविक होते हैं। ज्ञान वस्तुनिष्ठ कारणों का यह वास्तविकता का संवादी होता है होता है।
संयोग है और ज्ञान सत्य तब होता है जब एवं असत्य तब होता है, जब यह असंवादी
यह सिद्धान्त भी निर्दोष नहीं है। मूर स्वयं ऐसे शब्दों में नये अर्थ देने के दोषी परिलक्षित होते हैं, जिनके अर्थ साधारण बुद्धि द्वारा गृहीत और प्रचलित
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