________________
अर्थ से भिन्न हैं। संप्रत्यय और सामान्य को एक ही अर्थ में प्रयोग करना उन्हीं की पद्धति के अनुसार ठीक नहीं है। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैं इस संबंध में श्री व्राड से पूर्णतः सहमत हूँ। मैंने प्रिंसिपिया एथिका में जो मत प्रस्तुत किया था, अब मुझे अत्यनत मूर्खतापूर्ण एवं असंगत प्रतीत होता है। (The Philosophy of G.E. Moor, Ed. by Shilop, p. 581 में भी उपर्युक्त बातों की सम्पुष्टि की गई है।) अन्य सिद्धानतों की तरह ही यह भी आलोचना का विषय बना हुआ है। आलोचकों ने निम्नलिखित दोष दर्शाने की कोशिश की है, वे हैं
(1) वस्तुवादियों में लोकप्रिय (Naive) वस्तुवाद (Realism) की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि स्वप्न-विपर्यय विभ्रम आदि भ्रांतिपूर्ण अनुभूतियों की व्याख्या नहीं कर सकता है।
(2) प्रत्यय-प्रतिनिधित्ववाद के अनुसार ज्ञान के निर्माण में तीन तत्त्व काम करते हैं-मन, प्रत्यय और पदार्थ। यहां प्रत्यय प्रतिनिधि का कार्य करता है। यहां ज्ञान की सत्यता का अर्थ चेतना में उपस्थित प्रतिनिधि तथा बाह्य वस्तु के बीच संवाद् अथवा समरूपता का प्रत्यक्ष में होता है।
(3) मानसिक प्रतिभा और भौतिक वस्तु (रोग) के साथ प्रत्यंश-संवाद किस प्रकार संभव है? भौतिक वस्तु पीली, लाल, हरी, गोल आदि हो सकती है, परन्तु मानसिक प्रत्ययों के सम्बन्ध में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है।
(4) मूर ने संवादिता के संप्रत्यय को अपरिभाष्य अविश्लेष्य कहा है। ऐसी स्थिति में सत्यता को ही अपरिभाष्य अविश्लेष क्यों नहीं कहा जाए? संवादिता को अपरिभाष्य मानने की अपेक्षा सत्यता को ही अपरिभाष्य मानना अधिक सुविधाजनक होता है।
मनुष्य की बुद्धि सीमित है और ज्ञान समष्टि की निर्णय से संगत प्रतिज्ञप्ति बनाना मानव क्षमता पर है। इसीलिए इस सिद्धान्त के अनुसार सभी मानवीय प्रतिज्ञप्तियां अंशत: सत्य एवं अंशतः असत्य होती हैं।
108