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यहां यह बतलाना उचित प्रतीत होता है कि सत्य सम्बन्धी सिद्धान्तों में कितने प्रश्नों पर विचार किया जाता है। सत्य सम्बन्धी सिद्धान्तों में दो प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है-(1) प्रमा अथवा सत्य ज्ञान के क्या लक्षण हैं? (2) इसकी परीक्षा अथवा जांच करने की प्रणाली अथवा विधि क्या है?
संवादिता-सिद्धान्त में भी इन्हीं दो प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने की कोशिश की जाती है। आवश्यक है जो पदार्थ जैसा है, उसे उसी रूप में जानना ही यथार्थ या सत्य ज्ञान है। यथार्थ ज्ञान और उसके विषय में संवादिता रहना जरूरी है। उदाहरण के लिए कुदाल को कुदाल समझना सत्य ज्ञान है, उसी तरह रस्सी को रस्सी समझना सत्य ज्ञान है एवं कदाल को कडा ही समझना और रस्सी को सर्प समझना असत्य ज्ञान है। वस्तुवादी विचारक इसी सिद्धान्त को अपनाते हैं। इनका कहना है कि ज्ञान तथा तथ्य के बीच संवाद अथवा संगति सत्यता की केवल परिभाषा नहीं है, बल्कि उसकी कसौटी भी है।
यद्यपि सभी वस्तुवादियों ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है पर इस सम्बन्ध में जो विवेचन प्रस्तुत किया गया है, उसमें भिन्नता भी है। इसी भिन्नता को ध्यान में रखते हुए एस.सी. चटर्जी ने द प्रोबलेम ऑफ फिलॉसफी में लिखा है-"In the old school of comon-sense or naive realism. We have the theory that truth consists in a direct correspondence between knowledge and reality and that allow normal perceptions are true in this sense the copy theory of ideas as a form of the correspondence theory of truth seems to be revived in a modified form in modern critical realism. According to it these are three distinct factors in any knowledge namely mental status, data and object."
फिर भी सभी वस्तुवादी विचारक यह मानते हैं कि वस्तु का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र है। किसी ज्ञान की सत्यता जांचने के लिए उसे उस कसौटी पर कसते हैं कि वह वास्तविकता अर्थात तथ्य से मेल खाता है कि नहीं। इस प्रकार ज्ञान का वास्तविकता अथवा तथ्य के साथ मेल सत्यता की परिभाषा तथा जांच की विधि दोनों है। एच.एम. भट्टाचार्य ने बतलाया है कि वस्तुवादियों के सभी अवस्थाओं में प्रत्याय और तथ्य के बीच संवादिता लागू होता है। उन्हीं के शब्दों में "In Realism in all its phases truth seems to be a case of correspondence between ideas and facts, between the subjective and the objective."
तथ्य भौतिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। बर्फ का ठंडा होना, आग संताप का मिलना भौतिक तथ्य के और मेरा प्रसन्न अथवा दुःखी होना मानसिक जीवन से रहता है। मानसिक तथ्यों को ज्ञापित करने वाली प्रतिज्ञप्तियां, इस सिद्धान्त के अनुसार तभी सत्य होंगी, जब उनके द्वारा सूचित तथ्य मानसिक जगत् के यथार्थ अंग हों। यदि मैं सचमुच प्रसन्न हूं तो यह
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