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pragmatist professing that truth consists essentially in the conative satisfaction of the knowing agent.'
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प्रश्नचिहन वहीं उपस्थित होता है, जहां विचार के कारण विचारधारा अवरुद्ध होने लगती है। जेम्स ने निरूपाधिक रूप में न किसी विचार को स्वीकार किया है और न तिरस्कार ही । अतः सत्य विचार बैंक के वोट की तरह साख पर चलते हैं, जब तक उन्हें कोई लेने से इन्कार नहीं करता तब तक चलते रहते हैं। शिलर ने भी जेम्स के ही सत्य सिद्धान्त को अपनाकर एक नये ढंग से प्रस्तुत किया है। इन्होंने उपादेयता के साथ-साथ उसके काम करने की बात पर भी जोर दिया है। इनका कहना है कि “It must be admitted may emphasised that is to say that all all truth must work and be useful.” इनके अनुसार सत्यता एवं असत्यता हमारे निर्णयों को दिये गये वैसे भावात्मक एवं अभावात्मक मूल्य हैं, जो व्यावहारिक जीवन में अनेक आधार पर प्राप्त सफलता-असफलता के अनुरूप उन्हें दिये जाते हैं। शिलर ने यहां सत्यता एवं असत्यता का दावा (Truth and truth claim) का उल्लेख किया है। सभी निर्णय सत्यता का दावा करते हैं परन्तु बहुत ही कम निर्णय व्यावहारिक सफलता में सहायक होते हैं और वह सहायक होने के फलस्वरूप सत्य होते हैं। शिलर का कहना है कि सत्यता एवं सत्यता का दावा में कोई स्थिर या निरपेक्ष सम्बन्ध नहीं रहता है। जो निर्णय आज किसी खास सन्दर्भ में सत्य है, वह सदैव सत्य बना रहेगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है सन्दर्भ- परिवर्तन से सत्य निर्णय और सत्यता का दावा करने वाले निर्णयों के बीच की रेखा बदलती रहती है। जो निर्णय आज किसी सन्दर्भ में सरलता का हुए सन्दर्भ में कल सचमुच सत्य हो सकता है। अतः परिणाम अथवा उपयोगिता ही यहां भी सत्यता की अन्तिम कसौटी है । कोई भी verification अन्तिम नहीं हो सकता है। इसलिए कोई भी सत्य अन्तिम रूप से सत्य नहीं माना जा सकता है। निरपेक्ष सत्य कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वह सापेक्ष सत्य ही है । अतः यह परिवर्तनवादी सिद्धान्त है। शाश्वत का इनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है।
केवल दावा करता है, वह बदले
जॉन डीवी-परम्परागत चिंतक तो व्यवहार को हेय समझने के आदि हो चुके थे, फलवाद जो एक ही सिद्धान्त के विभिन्न नाम हैं, को रोटी और मक्खन का दर्शन कह रहे थे, भारतीय पदावली में दाल-रोटी का दर्शन। जॉन डीवी ने इस प्रकार की समीक्षाओं का विरोध किया और कहा कि पीयर्स अथवा जेम्स का अभिप्राय दार्शनिक चिंतन को उपयोग की वस्तुओं तक सीमित करने की नहीं है । जब पीयर्स व्यावहारिक परिणामों की ओर संकेत करते हैं तो उनका अभिप्राय चिंतन के परिणामों की जांच के लिए ऐसी कसौटी खोजना होता है, जिससे मात्र भाषिक विवादों को शान्त किया जा सके। इस तरह हम देखते हैं कि व्यवहारवाद को और आगे बढ़ाने की इन्होंने कोशिश की है। अगर हम यह कहें कि व्यवहारवाद अथवा अर्थक्रियावाद का पूर्ण विकास डी.वी. के दर्शन में हुआ है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ये पीयर्स और जेम्स के विचारों से काफी
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