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९०] श्रीदशलक्षण धर्म।
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(७) तप। दुर्धर कर्म गिरींद्र गिरावन बज्र समान महातप ऐसो । वारह भेद भणंत जिनेश्वर पाप पखालन पानीय जैसो ॥ दुःख विहंडण सौख्य समप्पण पंच हि इन्द्रिय रक्षण तैसो । 'ज्ञान' कहे तपस्या विन जीव जो मोक्ष पदारथ पावत कैसो ॥७॥
(4) त्याग। दान बड़ो जगमें नरको शुभ दानसे मान लहे जग मानव । भूप दयाल भये सबको अरि मित्र भये अरु सेवत दानव ॥ दानसे कीर्ति बढ़े जग भीतर दान समान न और कहा नव | 'ज्ञान' कहं भवपार उतारण दान चतुर्विध सार कहां तव ८॥
(९) आकिंचन्य । आलस अंगसे दूर करी कर नाम अकिंचन अंग धरावो । आलजंजाल तजो घटसे मन शुद्ध करो समता घर आवो ॥ जपतीर्थ करी फल इच्छित हो, तिस मूल भये फल किंचित पायो । 'ज्ञान' कहे नरको सुखदायक शुद्ध मने परमारथ ध्यावो ॥९॥
__ (१०) ब्रह्मचर्य । शील सदा नरको सुखदायक शील समान बड़ो नहिं कोई । शील फले भई शीतल पावक, सीताको जग देखत होई ।। सेठ सुदर्शन शूली सिंहासन, शील भले भव साधत दोई । 'ज्ञान' कहे नर सोहि विचक्षण जो नर पालत शील समोई ॥१०॥