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སྨནག་་་ ་་་་་དབཀའ་ ར་ ་མ་ ་ ་ ་ ་ ་ ་་་་་་་་་་་་
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६४ . श्रीदशलक्षण धर्म । विशेषता पड़ जाती है और सदा काल किसी एक ही दानकी मुख्यता नहीं रहती है । आवश्यकतानुसार दानोंमें मुख्यता और गौणता हुआ करती है। जैसे भूखेको भोजन देनहीकी मुख्यता है, रोगीको औषधि देनेकी, भयातुरको अभयदान देनेकी और मूर्खको ज्ञान दान ही देनको मुख्यता है । जब कोई भूखसे पीड़ित हो तब उसे औषधि, रुपया, पैसा, शास्त्रादि देना निप्प्रयोजनीय है, उसे तो पेटभर भोजन ही देना उचित है-जैसे एक मुर्गा जो भूखसे व्याकुल हो, भक्ष्यकी खोजमें फिर रहा था, उसे मोती दृष्टि पड़ा तब उससे अति घृणासे कहा-" रे मोती ! यद्यपि तू जौहरीके निकट जो कि तुझे चाहता है, भले ही बहुमूल्य है, किन्तु इस समय मेरी दृष्टिमें तो तू एक दाने अनाजसे भी कम दामका है ।" इसी प्रकार जब जहां मरी, प्लेग, विशूचिका आदि बीमारियां फैल रही हों, तब वहां कोई शास्त्र बांटने लगे, तो व्यर्थ ही होगा । इसलिये दान करनेके पहिले दानका द्रव्य, दानका पात्र, दानकी विधि, क्षेत्र व कालकी आवश्यकता और अपनी शक्ति देख लेना आवश्यक है, तभी वह दान सार्थक होता है । . औषधि, शास्त्र, अभय और आहार इन चार दानोंके सिवाय यदि आवश्यक है तो मकान, रुपया, वस्त्र, वाहनादि भी दिये जा सकते हैं, कुछ इनका सर्वथा निषेध नहीं है। जैसे वस्तिका, प्रोषध
शाला, धर्मशाला; पाठशाला, चैत्यालय, आदि सर्वसाधारणके उपकारार्थ . बनवा देना. मकान या स्थान दान है। रुपोंसे अनाथाश्रम, छात्राश्रम, श्राविकाश्रम, विद्यालय, औषधालय, पुस्तकालय खोल देना हिरण्य दान है । सर्वसाधारणके उपकारार्थ सत् शास्त्रोंको प्रकाशित करके विनामूल्य