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श्रीदशलक्षण धर्म ।
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बांधना और संक्लेश भावोंसे पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मोंको भोगकर छोड़ना, यही इसका एक प्रधान कार्य होगया है
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इस प्रकार कर्मचक्रमें फँसे रहने से इसे कभी भी अपने निज स्वरूपका ध्यानतक नहीं आता, जिससे पराधीन हुवा, संसार में परिवर्तन करता और दुःख भोगता रहता है । जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, परन्तु उसके फल भोगनेमें इसे परतंत्र होना पड़ता है। यह भोला जीव मृगमरीचिवत् वास्तविक सुखको न जानकर इन्द्रियोंके आकुलतापूर्ण अल्पकालस्थायी पराधीन थोड़ेसे विषयसुखको पाकर उनमें मग्न होजाता है और उनके अभाव में अथवा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृपादि पाधाओं और रोगादिकोंके होनेपर व्याकुलित होता है ।
किन्तु जब यही संसारी आत्मा कोई कारण पाकर अपने स्वरूपका विचार कर अनुभव करता है, तो वह इन सब जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, शीतोष्णादि व्याधियोंको कर्मकृत उपाधियों को मानता हुआ उनसे भिन्न अपने आपको सच्चिदानंद स्वरूप, एक अखण्ड अविनाशी, अनंतदर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यका स्वामी. देखता व जानता है और तब ही सब ओर से अपने चित्तको रोककर एकाग्र अपने स्वरूपमें लगा देता है । उस समय निजानन्दमें मग्न हुआ यह तेजस्वी आत्मा अनेकों प्रकारकी व्याधियोंके उपस्थित होने या उपसर्गों तथा परीषहोंके आनेपर उनको सहता हुआ, कभी भी अपने ध्यानसे च्युत नहीं होता ।
इसप्रकार जब वह निश्चल होकर ध्यानमें मंग्न होजाता है, तब उसे वाह्य शरीरपर होनेवाले उपसर्गोंका किंचित् भी ध्यान नहीं