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उत्तम तप ।
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+ इच्छा निरोधस्तपः अर्थात् इच्छाको रोकना अर्थात् मनको वश करना या उसके विषयोंके प्रति इन्द्रियोंको प्रेरकरूप गतिको रोकना सो तप है । उत्तम इसका विशेषण है, इससे विदित होता है कि जो तप यश, कीर्ति, पूजा, प्रख्याति, राम तथा और अनेकों लौकिक प्रयोजनोंके साधनार्थ न हो, लोक दिखाऊ न हो, मारन, मोहन, वशीकरण, उच्चारनार्थ न हो. यन्त्र, मंत्र, तंत्र, जड़ीबूटी, औषधादिकी सिद्धि करनेके अर्थ न हो, किन्तु अपने सच्चिदानन्दस्वरूप निर्मल आत्माको अनादि कर्मबंध से छुड़ानेवाला हो, वही उत्तम तप कहा जाता है |
जाता
यह तप धर्म आत्माका स्वभाव है, इसलिये ही यह धर्म कहा । कारण कि आत्मा अमूर्तीक ( रूप, रस, गन्ध और वर्णसे रहित ) अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यमयी, अखण्ड एक अविनाशी, सच्चिदानन्द स्वरूप, शुद्ध, बुद्ध, अजर, और अजन्मा है । यह स्वभावसे ही रोग, शोक, ग्लानि, स्वेद, खेद, क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, भय, विस्मय, निद्रा, मद, मोह, अरति, रति, वेद, कपाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ, ) आदिसे रहित, अखण्ड, अविनाशी, सदानन्दस्वरूप, एक, स्थिर, चैतन्य पदार्थ है । उपर्युक्त दोष तो इसमें कर्मपुत्र
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के सम्बन्धसे उत्पन्न होरहे हैं, क्योंकि यह इस पुगलको अपनाकर उसके हानि, लाभ, सुख, दुःखको अपना ही हानि लाभ सुख वा दुःख समझ रहा है । इसीसे यह रागद्वेषादिरूप परिणमन करके नवीन नवीन कर्मबन्ध करता है तथा प्राचीन बांधे हुए कर्मों के उदयजनित फलमें अरति व रति भाव करता है । इसप्रकार नवीन कर्म