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________________ श्रीदशलक्षण धर्म । मोर प्रकट करता हुआ स्वजातीय कौओंके पास जा उन्हें भला बुरा “कहने लगा । वे बेचारे इसकी मूर्खतापर चुप होरहे और अपने संघसे उसे त्याग कर दिया । पश्चात् वह मोरोंके झुंडमें जाके अकड़ कर फिरने लगा, इससे मोरोंने भी इसे तुरत छद्मभेषी काग समझकर खूब ही चोंचोंसे इसकी खबर ली । और सब नकली पर नोंच डाले । -तब वह मारसे व्याकुल हुआ, पीछे स्वजातियोंके पास आया और पूर्ववत् उनमें मिलना चाहा परन्तु उन्होंने भी इसकी मोरोंके समान खूब खबर ली और बाहर निकाल दिया । तब बेचारा महा दुःखी हो जन्म पर्यंत नातिच्युत हुआ अकेला ही बनमें मृत्युकी प्रतीक्षा २८ ] " करता करता मर गया । तात्पर्य-कपट - जाल कभी न कभी टूटता ही है और उसके टूटनेपर कपटीकी बहुत ही दुर्दशा होती है। सो जब इसी लोकमें कपटी मारन ताड़नादि अनेक वेदनाएँ सहता है तो परभवका कहना ही क्या है ? भगवान् उमास्वामीने कहा 'है - ' माया तैर्यग्योनस्य' अर्थात् मायाभावोंसे तिर्यञ्चगतिका आस्रव और बंध होता है। इससे वहाँ पर यह जीव अनेक प्रकार छेदन, मेदन, बध, बंधन, भूख प्यास आदि दुःख भोगता है । तथा शीत, उष्ण, छेदन, भेदन, डंस, मच्छर, भार वहन, मारन, ताड़नादि और भी अनेकों दुःख सहता है। -यदि यह सबल हुआ तो औरोंको मारकर खाने लगा और कभी शिकारियों द्वारा आप भी मारा गया । यदि यह निर्बल हुआ तो दूसरे -जीव इसे मारकर खा गये । यदि पालतू पशुओंमें हुआ तो सवारी में
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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