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दीक्षा छोडनी नहीं पडती । लेकिन अव्यंगव्यक्ति ही दीक्षा का अधिकारी होता है । इस सम्बन्ध में यह विचार उभरकर आता है कि अन्धव्यक्ति अगर पूरी तरह वैराग्य-सम्पन्न हो, तो उसका लिहाज जैनधर्म ने क्यों नहीं किया है ? अन्धव्यक्ति के वैराग्य का कोई भी मायने नहीं है ? वैसे भी साधु-साध्वी संघ में ही रहते हैं। संघ के आचार में वैयावृत्य का प्रावधान भी है । अगर एखाद व्यक्ति अन्ध हो तो उसकी संघ में सहजता से सेवा भी की जा सकती है ।
इन प्रश्नों पर जब विचारमन्थन शुरू होता है तो सामने आता है, समाज का प्रभाव । आज भी और सूत्रकृतांग के समय भी अन्धलोगों के प्रति समाज का दृष्टिकोण अनुदार ही रहा है । उन्हें गौण समझते हैं और समझते थे ।
किसी भी धर्म-सम्प्रदाय की पूजनीय व्यक्ति हमें अन्ध या अपंग नहीं दिखायी देती । इसकी कारणमीमांसा हम इस प्रकार कर सकते हैं
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१) अपंग व्यक्ति सामान्य गतिविधियाँ सुचारु रूप से नहीं कर सकती । उसका अहिंसापालन ठीक से नहीं हो पाता । अहिंसा तो धर्म का मूल है। उसपर आघात हो सकता है ।
२) साधुसाध्वी आदर्शभूत हैं । किसी विकलांग को हम आदर्श रूप में सोच भी नहीं सकते ।
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अगर एक विरागी अन्ध को दीक्षा दी तो शायद इतर अन्धव्यक्ति वैराग्य न होते हुए भी केवल चरितार्थ के लिए दीक्षा ले सकते हैं ।
४) अन्धव्यक्ति के बारे में लोग कह सकते हैं कि, 'यह तो खुद अन्धा है । यह हमें क्या रास्ता दिखायेगा ?'
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