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(१९) कर्मप्रवृत्ति एवं हिंसा
- अर्जुन निर्वाण
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के 'शस्त्रपरिज्ञा' इस पहले अध्ययन में महावीर कहते हैं कि, जन्म लेनेवाले हर जीव को जीने के लिए कर्म करना पडता है । इसमें मनुष्य का विचार करते हुए बताया है कि, वह किन कारणों से क्रियाओं में प्रवृत्त होता है, वे निम्नप्रकार हैं - दूसरों से १) प्रशंसा, कीर्ति के लिए - अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए -साहसिक
प्रतियोगिताओं में भाग लेना । २) सम्मान पाने के लिए अधिक धनोपार्जन और बाह्य एवं आंतरिक बलवर्धन । ३) पूजा, द्रव्यपूजा, इष्टदेव की पूजा के लिए भागदौड । हर कोई अपने गुण
गाए इसके लिए प्रयत्न । ४) जन्म - अपत्यप्राप्ति और अगले जन्म के लिए अनेकों कर्म । ५) मरण - पितरों के लिए और वैरशमन के लिए अनेक क्रियाकलाप । ६) मोक्ष - अनेक प्रकार की उपासना में मग्न होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न।
दुःख प्रतिकार - रोगनिवारण के लिए औषधि रसपान प्रयोग और उसके लिए हिंसा कर्म ।
यह वर्गीकरण इतना परिपूर्ण है कि बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। महावीर हर मुद्दे के जड तक जाकर सोचते हैं । उनकी पैनी नजर से कोई बात छूटती नहीं । यह कारण इसलिए गिनाए गए हैं ताकि कर्म करने से होनेवाली हिंसा न्यूनतम हो । जीविका के लिए पर्याप्त हिंसा ही हो । उसका अतिचार न हो ।
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