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आचारांग के दूसरे श्रुतस्कंध में स्पष्ट रूप से बताया है कि, ‘साधुसाध्वी किसी भी प्रकार के सामाजिक उत्सवों में शामिल न होवें । ‘संखडी' अर्थात् सामूहिक भोज में भिक्षा-याचना के लिए न जाएँ ।' सामूहिक भोज में निहित विविध प्रकार की अशुद्धि एवं हिंसा का टीकाकारों ने अच्छी तरह विस्तार किया है ।
यद्यपि साधु-साध्वियों के लिए निषेध द्वारा विविध उत्सवों का जिक्र आचारांग में किया है, तथापि उस काल के सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश का परिचय इसके द्वारा हमें प्राप्त होता है । उस काल के उल्लास-उमंगउत्साहपूर्ण सामाजिक जीवन की झलक इसमें प्रतिबिंबित है ।
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