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मानते थे । ऋजुता की ओर ले जानेवाला, माया प्रपंच से रहित अत्यन्त सरल ऋजु धर्म यहाँ भ. महावीर ने बताया है ।
'धर्म' का स्वरूप समझने के लिए प्रत्यक्षदर्शी महावीर का बताया हुआ वस्तुस्वरूप समझना जरूरी है । 'मार्ग' अध्ययन की गाथा क्र. ७/८ के अनुसार जीव स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है - सृष्टि में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय यह पाँच ' स्थावर' या एकेन्द्रिय जीव है और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय यह चार ‘त्रस' ऐसे षट्जीवनिकाय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं । इनके अतिरिक्त संसार में अन्य जीव - निकाय या जीव नहीं है । यह ‘स्थावर जीव' संकल्पना केवल जैन दर्शन की ही देन है । अन्य दर्शनों ने पृथ्वी, अप् आदि पाँच को जड, प्रकृति - रूप पंचमहाभूत माना हैं ।
आगे सुधर्मास्वामी महावीर प्ररूपित पृथ्वीकायिक इत्यादि का स्वरूप बतलाते हैं । पृथ्वी जिनकी काया है, ऐसे पृथक पृथक अस्तित्ववाले असंख्यात जीवों का पिण्ड पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं । इसके अलावा पृथ्वी के आश्रित असंख्यात त्रसादि जीव भी होते हैं। ऐसा ही अन्य चार स्थावर, एकेन्द्रिय के बारे में जानना चाहिए । “ परस्परोपग्रहो जीवानाम्" उक्ति के अनुसार सभी जीवों का जीवन एकदूसरे पर निर्भर होता है । सभी जीवों की चेतना एवं सुखदुःखानुभूति समान होती है । सभी को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता ।
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अब कर्मबन्ध का स्वरूप बताते हुए सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि 'कोई किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न हुआ हो, जब तक वह आरम्भ (हिंसा), परिग्रह का त्याग नहीं करता तब तक उसे कर्माश्रव होता है और जब तक कर्माश्रव होता है तब तक वह अपने दुःखों का अन्त नहीं करता ।' इसलिए
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