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________________ श्री नेमिचंद जी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला नेमिचंद भंडारी कृत अर्थ:- सूत्र का उल्लंघन करके उपदेश देने वाला पुरुष भले ही क्षमादि बहुत से गुणों और व्याकरणादि अनेक विद्याओं का स्थान हो तो भी वह उसी प्रकार त्याग देने योग्य है जिस प्रकार लोक में श्रेष्ठ मणि सहित भी विषधर सर्प विघ्नकारी होने से त्याज्य ही होता है ।। भावार्थः- विद्या आदि का चमत्कार देखकर भी कुगुरुओं का प्रसंग नहीं करना चाहिये क्योंकि स्वेच्छाचारी उपदेश देने वाले का उपदेश सुनने से अपने श्रद्धानादि मलिन हो जाने से बहुत बड़ी हानि होती है ।। १८ ।। मोह का माहात्म्य सयणाणं वामोहे, लोआ घिप्पंति अत्थ लोहेण । णो धिप्पंति सुधम्मे, रम्मे हा ! मोह माहप्पं । । १६ ।। अर्थः- संसारी जीव प्रयोजन के लोभवश पुत्रादि स्वजनों के मोह को ग्रहण करते हैं परन्तु यथार्थ सुखकारी जैनधर्म को अंगीकार नहीं करते सो हाय ! हाय !! यह मोह ( मिथ्यात्व ) का ही माहात्म्य है' ।। भावार्थः- समस्त जीव अपने को सुखी करना चाहते हैं किन्तु सुख का कारण जो जैनधर्म है उसका तो सेवन करते नहीं और पापबंध १. टि० - इस गाथा का अर्थ इस प्रकार से भी हो सकता है - संसारी जीव स्त्री आदि स्वजनों के व्यामोह में अर्थ अर्थात् धन को तो लोभ से ग्रहण करते हैं परन्तु रमणीक • जिनधर्म को ग्रहण नहीं करते। अहो ! यह मोह का माहात्म्य है ।' १४ भव्य जीव
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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