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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
अर्थ:- और लौकिक वार्ताओं को तो सभी जानते हैं तथा वैसे ही चौराहे पर पड़ा हुआ रत्न भी मिल सकता है परन्तु हे भाई! जिनेन्द्रभाषित धर्म रूपी रत्न का सम्यक् ज्ञान दुर्लभ है। इसलिये जैसे भी बने वैसे जिनधर्म का स्वरूप जानना - यह तात्पर्य है । । १६ । ।
शुद्ध सम्यक्त्व को कहने वाले भी दुर्लभ हैं
मिच्छत्त बहुल उयरा, विसुद्ध सम्मत्त कहणमवि दुलहं । जह वर णरवर चरियं, पाव णरिंदस्स उदयम्मि ।। १७ ।।
अर्थः- मिथ्यात्व के तीव्र उदय में विशुद्ध सम्यक्त्व का कथन करना भी उसी प्रकार दुर्लभ हो जाता है जिस प्रकार पापी राजा के उदय में न्यायवान राजा का आचरण दुर्लभ होता है ।।
भावार्थ:- इस निकृष्ट क्षेत्र - काल में मिथ्यादृष्टियों का तीव्र उदय होने से यथार्थ कथन करने वाले भी जब दुर्लभ हैं तो आचरण करने वालों का तो कहना ही क्या ! ।। १७ ।।
बहुत गुणवान भी उत्सूत्रभाषी त्याज्य है
बहुगुणविज्जाणिलओ, उस्सूत्भा तहा विमुत्तव्वो । वरमणित वि हु, वि विग्घयरो विसहरो लोए ।। १८ ।।
१. टि० - सागर प्रति में इस अन्तिम पंक्ति के स्थान पर यह पंक्ति है:
'जिस प्रकार पापी राजा का उदय होने पर न्यायवान जीवों का सदाचारपूर्वक रहना दुर्लभ हो जाता है।'
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