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________________ (५६) कषाय के वशीभूत होकर जिनमत से एक अक्षर भी यदि अन्यथा क तो वह अनंत संसारी होता है । । १२१ ।। (५७) वह जिनधर्मी कैसे हो सकता है जो मिथ्यासूत्र के वचनों का सेवन करता है ।।१२३-२४।। (५८) जिनधर्म का आचरण करना, उसका साधन करना एवं प्रभावना करनी- ये सब तो दूर ही रहो एक उसका श्रद्धान ही तीव्र दुःखों का नाश करता है अतः जिनधर्म धन्य है । । १२७ । । (५९) जिनधर्म को सुगुरु के पादमूल में बैठकर मैं जब सुनूँ उस मंगल दिवस की प्रतीक्षा है | |१२८ ।। (६०) वह जीव शुद्धधर्म से विमुख है जो पापी कुगुरु और शुद्ध गुरु को समान मानता है अर्थात् जिनराज या शुद्ध गुरु से जो अति पापिष्ठ और परिग्रहधारी कुगुरुओं की तुलना करता है । ।१३० ।। (६१) निश्चय से मोह रहित आत्मा की परिणति रूप जिनधर्म तो बड़े-बड़े ज्ञानियों के द्वारा भी जानना कठिन है फिर उसका लाभ होना तो दुर्लभ ही है सो परमार्थ जानने की शक्ति न हो तो अरहंतादि के श्रद्धान रूप व्यवहार को जानना ही भला है । व्यवहार से जिनमत की स्थिरता यदि बनी रहेगी तो परम्परा से कभी सच्चा धर्म भी मिल जायेगा और यदि व्यवहार धर्म भी नहीं होगा तो पाप प्रवृत्ति होने से जीव निगोदादि में चला जायेगा जहाँ धर्म की वार्ता भी दुर्लभ है । ।१३७ ।। T (६२) शास्त्राभ्यास रूप व्यवहार से परमार्थ रूप वीतराग धर्म की प्राप्ति होती है क्योंकि जो जिनोक्त व्यवहार है वह निश्चय का साधक है । ।१३८ । । (६३) अहिंसा व दया में ही धर्म होता है जैसा कि जैन मानते हैं, यज्ञादि हिंसा में धर्म नहीं होता । ।१४५ । । (६४) जिनमत तो अलौकिक है, यदि उसे मानते हो तो उससे विरुद्ध मिथ्यादृष्टियों की रीति को तो मत मानो । । १४ ८ । । (६५) मिथ्यात्व के नाश का उपाय जिनमत है और जिनमत को पा करके भी जिनका मिथ्यात्व रूपी रोग न जाये तो फिर उसका और कोई उपाय नहीं है । ।१४९ । । (६६) चैत्यालय व गुरु आदि में इस प्रकार का भेद डालना कि 'ये हमारे हैं और ये दूसरों के हैं' ऐसी जिनमत की रीति नहीं है । । १५०-५१ । । 000 47
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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