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उत्तर - जो सर्व शास्त्रों में एक सा कथन हो सो तो प्रमाण है ही और कहीं विवक्षा के वश से अन्य कथन हो तो उसकी विधि मिला लेना और अपने ज्ञान में विधि न मिले तो अपनी भूल मान बड़े ज्ञानियों से निर्णय कर लेना । शास्त्र को देखने का विशेष उद्यमी रहे तो अपनी भूल मिट जाती है और श्रद्धा निर्मल होती है ।। ९२ ।।
(२३) इस उपदेशमाला के सिद्धान्त को सब ही मुनि श्रावक मानते हैं, पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं । यह कोई कपोल कल्पित नहीं है, प्रामाणिक है और 'सम्यक्त्वादि को पुष्ट करने से सबका कल्याणकारी है । ९६ ।।
(२४) जो यथार्थ आचरण तो कर नहीं सकते और अपने आपको महंत मनवाना चाहते हैं, मोही हैं उनको शास्त्र का यथार्थ उपदेश नहीं रुचता । वे अधम मिथ्यादृष्टि इस शास्त्र की निंदा करते हैं और निंदा से होने वाले नरकादि के दुःखों को गिनते नहीं हैं ।। ९७ ।।
(२५) जगत के गुरु जो जिनराज उनके वचन समस्त जीवों को हितकारी हैं सो ऐसे जिनवचनों की विराधना से कहो कैसे धर्म हो सकेगा और किस प्रकार जीवदया पल सकेगी ! ।। ९९ ।।
(२६) जिनेन्द्र देव के वचन धर्म की उत्पत्ति के मूल कारण हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि 'मैंने अपने तथा दूसरों के श्रद्धान को दृढ़ करने के लिए ही यह शास्त्र का उपदेश रचा है' । ।१०३ ।।
(२७) जिनवचन के ज्ञाताओं को एक ही महादुःख होता है कि 'मूढ़ जीव धर्म का नाम लेकर पाप का सेवन करते हैं' । ।११४ ।।
(२८) जो जिनवचनों के ज्ञान से संसार से भयभीत होते हुए वैराग्य में तत्पर होकर उन वचनों के रहस्य में रमते हैं ऐसे महानुभाव पुरुष थोड़े हैं । ।११५ ।। (२९) बिना कारण ही अज्ञान के गर्व से जिनवाणी का एक अक्षर भी अन्यथा • कहने वाले अर्थात् उसके विरुद्ध बोलने वाले जीव अधमों मे भी महा अधम हैं, वे अनन्त संसारी होते हैं । ।१२१ ।।
(३०) 'महावीर स्वामी का जीव मारीचि जिनसूत्र का उल्लंघन करके उपदेश ' देने के कारण संसार में लम्बे काल तक घूमा' - शास्त्र के ऐसे वचनों को बारम्बार सुनकर भी दोषों को नहीं गिनकर जो मिथ्यासूत्र के वचनों का सेवन करता है उसे सम्यग्ज्ञान और उत्तम वैराग्य कैसे हो सकता है ! ।।१२३-१२४ ।।
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