________________
| जिनवाणी |
(१) इस ग्रंथ मे देव-गुरु-धर्म के श्रद्वान का पोषक उपदेश भली प्रकार किया है सो यह मोक्षमार्ग का प्रथम कारण है क्योंकि सच्चे देव-गुरु-धर्म की प्रतीति होने से यथार्थ जीवादिकों के श्रद्वान-ज्ञान-आचरण रुप मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है और तब ही जीव का कल्याण होता है इसलिए अपना कल्याणकारी जानकर इस शास्त्र का अभ्यास करना योग्य है । |ग्रंथारम्भ ।। (२) जिनवाणी के अनुसार परीक्षापूर्वक निर्णय करके ही धर्म धारण करना योग्य है ||गाथा ६।। (३) वीतराग भाव के पोषक जिनवचनों को जानकर भी संसार से उदासीनता नहीं उपजती तो राग-द्वेष को पुष्ट करने वाले कुगुरुओं के निकट कैसे उपजेगी ! ||८|| (४) जिनवाणी के अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व के एक अंश के विद्यमान रहते हुए भी मोक्षमार्ग की अत्यन्त दुर्लभता है ।।१०।। (५) जिनवाणी के सिवाय अपनी पद्धति बढ़ाने के लिए या मानादि पोषने के लिए रंच मात्र भी उपदेश देना योग्य नहीं है।।११।। (६) जिनभाषित शास्त्र सब ही जीवों को धर्म में रुचि रूप संवेग कराने वाले हैं ।।२२।। (७) शास्त्र सुनने की पद्धति रखने को जिस-तिस के मुख से शास्त्र नहीं सुनना चाहिये या तो निग्रंथ आचार्य के निकट सुनना चाहिये अथवा उन ही के अनुसार कहने वाले श्रद्धानी श्रावक से सुनना चाहिये ।।२३|| (८) जिनसे हित-अहित का ज्ञान हो ऐसे जैन शास्त्र ही सनना, अन्य रागादि को बढ़ाने वाले मिथ्या शास्त्र सुनने योग्य नहीं हैं। ।२४।। (९) जिनवाणी के अनुसार अरहंतादि का निश्चय करना, इस कार्य में भोला
रहना योग्य नहीं । ।३४ ।। (१०) जिनवचन में तो तिल के तुष मात्र भी परिग्रह से रहित श्रीगुरु और सम्यक्त्वादि धर्म के धारी श्रावक कहे गये हैं । ।३५ ।। (११) जिनवाणी में जैसा कहा है उसी प्रमाण पूजनादि कार्यो का विधान यत्नाचार सहित करना चाहिये, अपनी बुद्धि के अनुसार यद्वा-तद्वा करना
36