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सुगुरु
(१) अन्तरंग मिथ्यात्वादि और बहिरंग वस्त्रादि परिग्रह रहित प्रशंसा योग्य गुरु उत्तम कृत्कृत्य पुरुषों के हृदय में निरन्तर रहते हैं । । गाथा १।। (२) अज्ञानी जीवों को हँस-हँसकर संसार भ्रमण के कारणभूत कर्मों को बाँधते हुए देखकर श्री गुरुओं के हृदय में करुणाभाव उत्पन्न होता है कि 'ये जीव ऐसा कार्य क्यों करते हैं, वीतराग क्यों नहीं होते ।।९।।
(३) शुद्ध गुरु के उपदेश से सम्यक् श्रद्धान होता है और अश्रद्धानी के मुख से शास्त्र सुनने पर श्रद्धान निश्चल नहीं होता - ऐसा तात्पर्य है ।। २२ ।। (४) जीव को बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित निर्ग्रथ गुरुओं के निकट और उनका संयोग न हो तो उन ही के उपदेश को कहने वाले श्रद्धानी श्रावक से शास्त्र सुनना योग्य है ।। २३ ।।
(५) मंदमोही भव्य जीवों की ही बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित वीतरागी गुरुओं के प्रति तीव्र प्रीति होती है । । ४१ ।।
(६) बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित शुद्ध गुरुओं का सेवक जो पुरुष है वह
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