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________________ (१६) कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव जिनाज्ञा के बिना तपश्चरण आदि क्रियाओं का अनेक आडम्बर करते है वे आडम्बर मूर्यों को ही उत्कृष्ट भासते हैं परन्तु ज्ञानी जानते हैं कि ये समस्त क्रियाएँ जिनाज्ञा रहित होने से कार्यकारी नहीं हैं। १०० ।। (१७) जो जिनाज्ञा में तत्पर हैं वे ही धर्म के लिये हमारे गुरु हैं ||१०४ ।। (१८) जो जीव जिनाज्ञा को भंग करके अपनी विद्वत्ता द्वारा अन्यथा उपदेश करते हैं वे जिनधर्मी नहीं हैं ।।१२४ ।। (१९) राजादि की सेवा करके यदि कोई उससे फल चाहता है तो उसकी आज्ञानुसार चलता है और सेवा तो करे पर आज्ञा उसकी नहीं माने तो उसे फल नहीं मिलता। इसी प्रकार यदि तुम जिनदेव को आराधते हो तो उनकी आज्ञा को प्रमाण करना, यदि प्रमाण नहीं करोगे तो आराधना का फल मोक्षमार्ग तुम्हें कदापि नहीं मिलेगा ।।१३२ ।। (२०) जिनराज की आज्ञा के आराधकपने से दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता रूप निर्मल बोधि उत्पन्न होती है ||१३८ ।। (२१) बंधन व मरण आदि का दुःख तीव्र दुःख नहीं क्योंकि वे तो वर्तमान ही में दुःखदायी हैं पर जिनवचनों की विराधना करना अनंत भव में दुःखदायी है इसलिए जिनाज्ञा भंग करना महा दुःखदायी जानना ।।१५४ ।। (२२) शक्ति की हीनता से यद्यपि मैं श्रावक के उत्कृष्ट व्रत धारण नहीं कर - सकता तो भी मुझे जिनाज्ञा प्रमाण धर्म धारण करने की लालसा है-ऐसी ग्रंथकार ने भावना भाई है।।१५६ ।। है
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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