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श्रद्धानपूर्वक धर्म में
शुद्ध गुरु के मुख से जिनसूत्र सुनने से
रुचि होती है।
शुद्ध धर्म से विमुख है। के समान मानने वाला धारी कुगुरु को शुद्ध गुरु अति पापी, परिग्रहादि के
जो जैसा जीव हो उसकी वैसे ही जीव से प्रीति होती है। जो तीव्र मोही कुगुरु हैं उनसे मोहियों की ही प्रीति होती है।
विद्या इत्यादि चमत्कार देखकर भी कुगुरुओं का प्रसंग मत करना ।
इस दुःखमा काल धर्मार्थी गुरु और श्रावक दुर्लभ हैं। राग-द्वेष सहित नाम गुरु और नाममात्र श्रावक बहुत हैं।
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सो ही ज्ञान है जिससे गुरुओं व कुगुरुओं का
स्वरूप जाना जाए।
भव्य जीवों की बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित सुगुरुओं पर ही तीव्र प्रीति होती है ।
बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित शुद्ध गुरुओं का सेवक मिथ्यादृष्टि लोगों का महा शत्रु है।