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कुगुरु का त्याग कर ।
कुगुरु को पक्षपात से सुगुरु मत कह ।
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सर्प तो एक ही मरण देता है परन्तु कुगुरु अनन्त मरण देता है अर्थात कुगुरु के प्रसंग से मिथ्यात्वादि पुष्ट होने से जीव निगोदादि में अनन्त मरण पाता है इसलिए सर्प का ग्रहण करना तो भला है परन्तु कुगुरु का सेवन भला नहीं है।
कुगुरु में सर्प से भी
कुगुरु स्व-पर अहितकारी है ।
अधिक दोष
है।
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