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हाय ! हाय !! यह बड़ा अकार्य है कि प्रकट में कोई स्वामी नहीं है जिसके पास जाकर हम पुकार करें कि जिनवचन तो किस प्रकार के हैं, सुगुरु कैसे होते हैं और श्रावक किस प्रकार के
अर्थात्
जिनवचन में तो तिल के तुष मात्र भी। परिग्रह से रहित श्रीगुरु कहे हैं और सम्यक्त्वादि धर्म के धारी श्रावक कहे हैं परन्तु आज इस पंचमकाल में गृहस्थ से भी अधिक तो परिग्रह रखते हैं और स्वयं को गुरु मनवाते हैं और देव-गुरु-धर्म का व न्याय-अन्याय का भी कुछ। ठीक नहीं है और स्वयं को श्रावक मानते हैं सो यह बड़ा अकार्य है, कोई न्याय करने वाला नहीं है, किससे कहें ऐसा आचार्य ने खेद
से कहा
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