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(७) इस निकृष्ट पंचम काल में जैनमत में भी पीताम्बर, रक्ताम्बर आदि वेषधारी हुए हैं जो भगवान की आज्ञा की विराधना करके वस्त्रादि परिग्रह धारण करते हुए भी अपना आचार्य आदि पद मानते हैं और कहते हैं कि 'हम गणधर आदि के कुल के हैं उनके प्रति यहाँ कहा है कि अन्यथा आचरण ) करने वाला मिथ्यादृष्टि ही है, कुल से कुछ साध्य नहीं है । । ७२ ।। (८) इस निकृष्ट पंचम काल में कई जीव ऐसा मानते हैं कि 'अमुक गच्छ या अमुक संप्रदाय के तो हमारे गुरु हैं, शेष दूसरों के गुरु हैं हमारे नहीं' सो ऐसा एकांत जिनमत में नहीं है। जिनमत में तो जिनवचन रूपी रत्नों के आभूषणों से जो मंडित हैं वे सब ही गुरु हैं । ।१०५ ।।
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(९) इस निकृष्ट पंचम काल में धर्मार्थी सुगुरु तथा श्रावक दुर्लभ हैं, राग-द्वेष सहित नाम मात्र के गुरु और नाम मात्र के श्रावक तो बहुत हैं । धर्मार्थी होकर धर्म सेवन करना दुर्लभ है । लौकिक प्रयोजन के लिए धर्म का सेवन करते हैं सो नाम मात्र सेवन करते हैं अतः धर्मसेवन का गुण जो वीतराग भाव है। उसको वे नहीं पाते सो ऐसे जीव बहुत ही हैं । । ११२ । ।
(१०) इस निकृष्ट पंचम काल में श्रेष्ठ पुरुष जैनीजन तो दुःखी हैं और दुष्टों का उदय है एवं सम्यक्त्व बिगड़ने के अनेक कारण बन रहे हैं फिर भी जिन भाग्यवानों का सम्यक्त्व चलायमान नहीं होता उनको मैं नमस्कार करता हूँ । ।१३३ ।। (११) इस निकृष्ट पंचम काल में नामाचार्यों ने अर्थात् आचार्य के गुण तो जिनमें हैं नहीं और आचार्य कहलाते हैं उन्होंने लोक में ऐसा गहल भाव उत्पन्न कर दिया है जिससे निपुण पुरुष ही शुद्ध धर्म से चलायमान हो जाते हैं तो फिर अन्य भोले जीव तो चलायमान होंगे ही होंगे। कैसा है वह गहल भाव ? बहुत जनों के प्रवाह रूप है अर्थात् जिसे अनेक ज्ञानी जीव भी मानने लगते हैं । ।१४१ ।। (१२) इस निकृष्ट पंचम काल में मिथ्यात्व के स्थान रूप निकृष्ट भाव से नष्ट हुआ है महा विवेक जिनका ऐसे हम लोगों को स्वप्न में भी सुख की संभावना नहीं हो सकती । ।१५८ । ।
(१३) इस निकृष्ट पंचम काल में मिथ्यात्व की प्रवृत्ति बहुत है इसमें मैं जीवित हूँ और श्रावक का नाम भी धारण किये हुए हूँ वह भी हे प्रभो ! महान् आश्चर्य है । । १५९ । ।
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