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000000 पंचम काल की हीनता
(१) इस निकृष्ट पंचम काल में मिथ्यादृष्टियों का तीव्र उदय है इसलिए धर्म का यथार्थ कथन करने वाले ही जब दुर्लभ हैं तो आचरण करने वालों । का तो कहना ही क्या ! ||गाथा १७ ।। (२) इस निकृष्ट पंचम काल में गुरु तो भाट हो गए जो लोभी होकर शब्दों . द्वारा दातार में बिना हुए गुणों की भी स्तुति करके दान लेते हैं और दाता। अपने मान पोषने के लिए देते हैं सो दोनों ही मिथ्यात्व और कषाय के पुष्ट होने से संसार समुद्र में डूबते हैं। अन्यमत में तो भाटवत् स्तुति करके दान लेने वाले ब्राह्मण आदि पहले से भी थे पर जिनमत में तो इस निकृष्ट काल . में ही हुए हैं। ।३१।। 9 (३) इस निकृष्ट पंचम काल में लोग मिथ्यात्व के प्रवाह में आसक्त हैं उनमें
परमार्थ को जानने वाले बहुत थोड़े हैं और गुरु कहलाने वाले अपनी महिमा के रसिक हैं सो शुद्ध मार्ग को छिपाते हैं और यथार्थ धर्म का स्वरूप नहीं कहते ।
अतः जिनधर्म की विरलता इस काल में हुई है।।३२।। OP (४) इस निकृष्ट पंचम काल में गृहस्थों से भी अधिक तो परिग्रह रखते हैं कर
और अपने को गुरु मनवाते हैं ऐसे ही देव-गुरु-धर्म का व न्याय-अन्याय का तो कोई निर्णय नहीं है और अपने को श्रावक मानते हैं सो यह बड़ा अकार्य
है, कोई न्याय करने वाला नहीं है किससे कहें-ऐसा आचार्य ने खेद से कहा 0 OP है।।३५||
(५) इस निकृष्ट पंचम काल में जैसे-जैसे जिनधर्म हीन होता है और जैसे-जैसे दुष्टों का उदय होता है वैसे-वैसे दृढ़ श्रद्धानी सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व हुलसायमान होता है और उनका श्रद्धान निर्मल ही होता है कि यह काल दोष है, भगवान ने ऐसा ही कहा है।।४२।। (६) इस निकृष्ट पंचम काल में उत्पन्न हुए जीवों का यह अति पापोदय का माहात्म्य है कि षट्काय के जीवों की रक्षा करने में माता के समान . जिनधर्म का अत्यन्त उदय नहीं दिख रहा है, धर्म कुछ हीन नहीं है।।४३।। C
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