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उपदेश सिद्धान्त की रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भव्य जीव
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मूल्यांकन कल्पवृक्ष अथवा चिंतामणि रत्न से भी नहीं होता ' सकता है अर्थात् वह पुरुष उनसे भी महान है।। ५३ ।।।
सत्पुरुषों के गुणगान से कर्म गलते हैं लज्जति जाणि मोहं, सप्पुरिसाणि अय णाम गहणेण। पुण तेसिं कित्तणाओ, अम्हाण गलंति कम्माइं।। ५४।। अर्थः- मैं ऐसा जानता हूँ कि जिनधर्मियों की सहायता करने वाले पुरुषों का नाम लेने मात्र से मोह कर्म लज्जायमान होकर मंद पड़ जाता है और उनका गुणगान करने से हमारे कर्म गल जाते हैं।।
भावार्थः- जिनधर्मियों का नाम लेने से जीव का कल्याण होता है।। ५४।।
कषायी व कीर्ति इच्छुक के धर्म नहीं होता आणा रहिअं कोहाइ, संजुअं अप्पसंसणत्थं च।
धम्म सेवंताणं, णय कित्ती णेय धम्म च।। ५५।। अर्थ:- जो जीव जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा रहित और क्रोधादि कषायों सहित अपनी प्रशंसा के लिए धर्म का सेवन करते हैं उन्हें न तो यश ही मिलता है और न धर्म ही होता है।।
भावार्थ:- जो जीव अपनी बड़ाई आदि के लिए धर्म का सेवन करते हैं उन्हें बड़ाई तो मिलती ही नहीं कषाय संयुक्त होने से धर्म भी नहीं होता अतः धर्म का सेवन निरपेक्ष होकर ही करना चाहिये ।। ५५ ।।