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आज से १११ वर्ष पूर्व सन् १८९८ में प्रकाशित
मराठी अनुवादयुक्त हिन्दी उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला की प्रस्तावना
अनुमान होता है कि किसी समय रक्ताम्बर पीताम्बरादि मिथ्या वेषधारी पाखंडियों ने जैन समाज को बहकाकर अपना व रागी-द्वेषी कुदेवों के भक्त बना जिनमत से उल्टे मार्ग में लगा दिया। उन पर दया दृष्टि करके श्रीमान पंडितवर्य नेमिचन्द्र भंडारी ने यह 'उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला' नामक ग्रंथ रचकर भोली-भाली जैन समाज का बहुत उपकार किया है। वर्तमान समय में भी अनेक वेषधारी पाखंडी हमारी जैन समाज में देखे जाते हैं जो कि अपने को गुरु मनाकर भोले भाइयों से पांव पुजाकर धनादिक ठगते फिरते हैं और जिनमत से उल्टे मार्ग पर चलाकर कुदेवों के भक्त बना अज्ञानांधकार में डुबो दिया है। ऐसे भाईयों को सुदेव-कुदेव, सुगुरु-कुगुरु का स्वरूप समझाने के लिये यह ग्रंथ अतिशय उपयोगी समझ हमारे मित्रवर्य पंडित पन्नालाल जी बाकलीवाल, सुजानगढ़ निवासी ने श्रीमान् पंडितवर्य भागचन्द जी कृत वचनिका टीका के सहारे से सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद कर इस ग्रंथ के छपा देने की प्रेरणा करी परन्तु हमारे दक्षिण देश में मिथ्यात्व रूपी अंधकार अधिक फैला हुआ है। खासकर यह ग्रंथ दक्षिणी जैनी भाईयों को सत्यार्थ मार्ग पर लाने के लिये अतिशय उपयोगी है। इस कारण मैंने मराठी भाषानुवाद करके प्रकाशित किया है। आशा है कि हमारे दक्षिणी जैनी भाई इस ग्रंथ को आदर के साथ विचारपूर्वक पढ़कर हमारे परिश्रम को सफल करेंगे। __ इस ग्रंथ की शुद्ध प्रति न मिलने के कारण मूल गाथा में कहीं-कहीं अशुद्धि रह गई होगी। यदि कोई पंडित महाशय भूल बतावेंगे तो पुनरावृत्ति में शुद्ध करके छपाई जायगी।
वर्धा सी. पी. ता. 99-90-१८९८
जैन समाज का हितैषी जयचन्द्र श्रावण जेन