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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो जिनसूत्र से च्युत हुए हैं और स्वच्छंद हुए प्रवर्तते हैं, वे मिथ्याद ष्टि हैं :
उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गुरुयभारो य ।
जो विहरइ सच्छंद पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ।। ६ ।। परिकर्म बहु, उत्क ष्ट सिंह चरित्र, गुरुक भी भार हो ।
पर विहरता स्वच्छंद, पाता पाप को, मिथ्यात्व को ।।६।।
अर्थ
जो मुनि होकर उत्क ष्ट सिंह के समान निर्भय हुआ आचरण करता है और 'बहु परिकर्म' अर्थात् तपश्चरणादि क्रिया विशेषों से युक्त है तथा 'गुरुकभार' 1 अर्थात् बड़ा पदस्थ रूप है-संघनायक कहलाता है परन्तु जिनसूत्र से च्युत हुआ स्वच्छंद प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होता है । भावार्थ
जो धर्म का नायकपना लेकर निर्भय हो तपश्चरणादि से बड़ा कहलाकर अपना संप्रदाय चलाता है और जिनसूत्र से च्युत होकर स्वेच्छाचारी हुआ प्रवर्तता है वह पापी मिथ्याद ष्टि ही है, उसका प्रसंग श्रेष्ठ नहीं है । । ६ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिनसूत्र में ऐसा मोक्षमार्ग कहा है :
टि0- 1. 'श्रु0 टी0' में 'गुरुकभार' की विवेचना की है कि 'राजादि के भय का निवारण करना; fष्यों के पठन-पाठन में समर्थता यात्र, प्रतिष्ठा, दीक्षा, दान, आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र की निर्णयशीलता; षडावयक कर्म में कर्मठता; धर्मोपदे देने में समर्थता और सब यतियों को निचित कर देने की सामर्थ्य 'गुरुकभार' कहलाती है ।
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