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अष्ट पाहड़
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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योग्य नहीं है, ऐसा वेष हास्य-कौतूहल में भी धारण करना योग्य नहीं है कि जिसमें वस्त्र सहित रहना और 'पाणिपात्र' भोजन करना-ऐसा क्रीडा मात्र से भी नहीं करना ।।७।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'जो जिनसूत्र से भ्रष्ट है वह हरिहरादि के तुल्य हो तो भी
मोक्ष नहीं पाता है' :हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।।८।।
हर-हरी सम हो स्वर्ग जाए, तो भी कोटी भव भ्रमे। पाता नहीं है सिद्धि, संसारस्थ ही है कहा गया ।।८।।
अर्थ जो नर सूत्र के अर्थ-पद से भ्रष्ट है वह 'हरि' अर्थात् नारायण और 'हर' अर्थात् रुद्र तुल्य भी हो, अनेक ऋद्धि से युक्त हो तो भी 'सिद्धि' अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। यदि वह कदाचित् दान-पूजादि से पुण्य उपजाकर स्वर्ग चला जाये तो भी वहाँ से चयकर करोड़ों भव ले संसार ही में रहता है-ऐसा जिनागम में कहा है।
भावार्थ श्वेताम्बरादि ऐसा कहते हैं कि 'ग हस्थ आदि वस्त्र सहित हैं उनके भी मोक्ष होता है-इस प्रकार सूत्र में कहा है।' उनका इस गाथा में निषेध का आशय है कि 'हरिहरादि बड़ी सामर्थ्य के धारक भी हैं तो भी वस्त्र सहित तो मोक्ष नहीं पाते हैं। श्वेताम्बरों ने कल्पित सूत्र बनाये हैं जिनमें यह लिखा है सो प्रमाणभूत नहीं है, वे जिनसूत्र के अर्थ-पद से च्युत हुए हैं-ऐसा जानना' ||८||
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