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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
को प्रधान रखने में यदि जिनमत से च्युत हो जाये तो बड़ा दोष आता है
इसलिए जिनकी अपने हित-अहित पर द ष्टि है वे तो ऐसा जानो और जिनको
अल्पज्ञानियों में महंत बनकर अपने मान, लोभ, बड़ाई, विषय और कषाय
पोषने हों उनकी कथा नहीं है, वे तो जैसे अपने विषय कषाय पुष्ट होंगे वैसा करेंगे, उनको मोक्षमार्ग का उपदेश लगता नहीं, विपरीत को कैसा उपदेश - ऐसा
जानना । । ६ । ।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो सूत्र के अर्थ - पद से भ्रष्ट है उसको मिथ्याद ष्टि जानना' :
सुत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो । खेडे वि ण कायव्वं पाणियपत्तं सचेलस्स ।। ७ ।। सूत्रार्थ पद है नष्ट जिसके, प्रकट मिथ्याद ष्टि वह । नहि खेल में भी पाणिपात्र, सचेल के कर्तव्य है । । ७ ।। अर्थ
जो सूत्र का अर्थ और पद है विनष्ट जिसके ऐसा
इसलिये जो सचेल है- वस्त्र
वह प्रकट मिथ्याद ष्टि है
सहित है उसको 'खेडे वि' अर्थात् हास्य- कौतूहल
मात्र में भी ‘पाणिपात्र' अर्थात् हस्त रूपी पात्र में आहारदान सो नहीं करना ।
भावार्थ
सूत्र
में
मुनि का रूप नग्न दिगम्बर कहा है और जो ऐसे सूत्र के अर्थ से तथा अक्षर रूप पद जिसके विनष्ट है और आप जिससे विनष्ट है, इस अर्थ - पद को
छोड़ दिया है सो मुनि का रूप वस्त्र सहित कहता है तथा आप वस्त्र धारण करके
मुनि कहलाता है वह जिन आज्ञा से भ्रष्ट हुआ प्रकट मिथ्याद ष्टि है इसलिए ऐसे वस्त्र सहित को हास्य- कौतूहल में भी 'पाणिपात्र' अर्थात् आहारदान नहीं करना तथा इसका ऐसा भी अर्थ होता है कि ऐसे मिथ्याद ष्टि को पाणिपात्र आहार लेना
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