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________________ आचार्य कुन्दकुन्द 渊渊渊渊渊渊渊渊渊卐業 अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित रूप है वही पर्याय रूप है - इस प्रकार दोनों को ही प्रधान करके कहना सो प्रमाण का विषय है। इसका उदाहरण इस प्रकार है-जैसे जीव को चैतन्यरूप, नित्य, एक, शुद्ध, अस्तित्व रूप इत्यादि अभेदमात्र कहना सो तो द्रव्यार्थिक का विषय है और ज्ञान-दर्शन रूप, अनित्य, अनेक, अशुद्ध, नास्तित्व इत्यादि रूप कहना सो पर्यायार्थिक का विषय है-ऐसे ये दोनों ही प्रकार व्यवहार का विषय और दोनों प्रकार का निषेध करके वचन अगोचर कहना सो निश्चयनय का विषय और दोनों प्रकार को प्रधान करके कहना सो प्रमाण का विषय है इत्यादि। इस प्रकार निश्चय - व्यवहार का सामान्य संक्षेप स्वरूप है उसको जानकर जैसा आगमअध्यात्म शास्त्रों में विशेष रूप से वर्णन हो उसको सूक्ष्म दष्टि से जानना । जिनमत अनेकांतस्वरूप स्याद्वाद है और अनेक नयों के आश्रित कथन है । वहाँ नयों का जो परस्पर विरोध है उसको स्याद्वाद मेटता है, उसके विरोध-अविरोध का स्वरूप भली प्रकार यथार्थ जानना सो तो गुरु आम्नाय ही से होता है परन्तु गुरु का निमित्त इस काल में विरल हो गया इसलिए अपने ज्ञान का बल चले तब तक विशेष समझते ही रहना, कुछ ज्ञान का लेश पाकर उद्धत नहीं होना। वर्तमान काल में अल्पज्ञानी बहुत हैं इसलिए उनसे कुछ अधिक अभ्यास करके उनमें महन्त बन उद्धत हुए मद आ जाता है तब ज्ञान थकित हो जाता है और विशेष समझने की अभिलाषा नहीं रहती तब विपरीत होकर यद्वा-तद्वा कहता है, तब अन्य जीव के विपरीतता हो जाती है-इस प्रकार अपने अपराध होने का प्रसंग आता है इसलिए शास्त्र को समुद्र जानकर अल्पज्ञ रूप ही अपना भाव रखना जिससे विशेष समझने की अभिलाषा रहकर ज्ञान की व द्धि हो, अल्पज्ञानियों में बैठ महन्तबुद्धि रखने पर तो प्राप्त ज्ञान भी नष्ट हो जाता है-ऐसा जानना । निश्चय-व्यवहार रूप आगम की कथनी समझकर उसका श्रद्धान करके यथाशक्ति आचरण करना। इस काल गुरु संप्रदाय के बिना महन्त नहीं बनना, जिन आज्ञा नहीं लोपना । आचरण तो शक्ति के अनुसार करना कहा है और श्रद्धा आज्ञा हो सो करनी कही है। कोई कहते हैं कि 'हम तो परीक्षा करके जिनमत को मानेंगे।' वे वथा बकते हैं क्योंकि अल्पबुद्धि का ज्ञान परीक्षा करने लायक नहीं होता । आज्ञा को प्रधान रखकर बने जितनी परीक्षा करने में दोष नहीं है पर केवल परीक्षा ही २-२० 卐業卐業業 【卐糕糕 米糕業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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