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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द DOO आत्मा का निरूपण है सो सब व्यवहारनय का विषय है, इसको अध्यात्म शास्त्र में अभूतार्थ, असत्यार्थ नाम से कहकर वर्णन किया है क्योंकि शुद्ध आत्मा में संयोगजनित अवस्था हो सो तो असत्यार्थ ही है, कुछ शुद्ध वस्तु का तो यह स्वभाव नहीं है इसलिए असत्य ही है तथा जो निमित्त से अवस्था हुई वह भी आत्मा ही का परिणाम है, सो जो आत्मा का परिणाम है वह आत्मा ही में है इसलिए कथंचित् इसको सत्य भी कहते हैं परन्तु जब तक भेदज्ञान नहीं होता तब तक ही यह द ष्टि है, भेदज्ञान होने पर जैसा है वैसा जानता है। जो द्रव्य रूप पुद्गलकर्म हैं वे आत्मा से भिन्न हैं ही, उनसे शरीरादि का जो संयोग है वह आत्मा से प्रकट ही भिन्न है, उनको आत्मा के कहते हैं सो यह व्यवहार प्रसिद्ध है, इसको असत्यार्थ कहते हैं, उपचार कहते हैं। यहाँ कर्म के संयोगजनित भाव हैं वे सब निमित्ताश्रित व्यवहार के विषय हैं और उपदेश की अपेक्षा इसको प्रयोजनाश्रित भी कहते हैं-इस प्रकार निश्चय-व्यवहार का संक्षेप है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मोक्षमार्ग कहा उससे ऐसा समझना कि ये तीनों एक आत्मा ही के भाव हैं, इस प्रकार उन स्वरूप आत्मा ही का अनुभव हो सो तो निश्चय मोक्षमार्ग है, उसमें भी जब तक अनुभव की साक्षात् पूर्णता नहीं हो तब तक एकदेश रूप होता है उसको कथंचित् सर्वदेश रूप नाम से कहते हैं सो तो व्यवहार है और एकदेश नाम से कहना निश्चय है तथा दर्शन-ज्ञान-चारित्र को भेद रूप कहकर मोक्षमार्ग कहना तथा इनके बाह्य परद्रव्य स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव निमित्त हैं उनको दर्शन-ज्ञान-चारित्र नाम से कहना सो व्यवहार है। देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं, जीवादि तत्त्वों की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं; शास्त्र के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, जीवादि पदार्थों के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं इत्यादि तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप प्रव त्ति को चारित्र कहते हैं तथा बारह प्रकार के तप को तप कहते हैं-ऐसी जो भेद रूप तथा परद्रव्य के आलम्बन रूप प्रव त्ति है वह अध्यात्म शास्त्र की अपेक्षा व्यवहार के नाम से कही जाती है क्योंकि वस्तु के एकदेश को वस्तु कहना सो भी व्यवहार है और परद्रव्य के आलम्बन रूप प्रव त्ति को उस वस्तु के नाम से कहना सो भी व्यवहार है। अध्यात्म शास्त्र में इस प्रकार का भी वर्णन है कि वस्तु अनन्त धर्म रूप है, उसका सामान्य-विशेष से तथा द्रव्य-पर्याय से वर्णन किया जाता है, उसमें द्रव्यमात्र कहना तथा पर्यायमात्र कहना सो तो व्यवहार का विषय है तथा जो द्रव्य 明崇明崇明崇明崇崇崇明慧 崇明崇明藥崇崇勇兼崇明 崇明藥業業業樂樂樂業先秦先崇明崇明藥業坊漲漲漲漲 崇帶养添馬艦帶男藥先崇勇崇崇勇攀事業事業事業樂業樂業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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