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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
जब एक आत्मा ही को प्रधान करके लगाना सो अध्यात्म है। उसमें जीव सामान्य को भी आत्मा कहते हैं और जो जीव अपने को सब जीवों से भिन्न अनुभव करे उसको भी आत्मा कहते हैं। जब अपने को सबसे भिन्न अनुभव करके अपने पर निश्चय - व्यवहार लगावें तब इस प्रकार है - आप अनादि - अनन्त, अविनाशी, सब अन्य द्रव्यों से भिन्न, एक, सामान्य - विशेष रूप, द्रव्यपर्यायात्मक 'जीव' नामक शुद्ध वस्तु है सो कैसी है - शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाध् रण धर्म को लिए हुए अनन्त शक्ति की धारक है । उसमें अनन्त शक्ति को लिए हुए सामान्य चेतना सो तो द्रव्य है तथा अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चेतना के जो विशेष हैं वे गुण हैं और अगुरुलघुगुण के द्वारा षट्स्थान पतित हानि-वद्धि रूप परिणमन करती हुईं त्रिकालात्मक अनन्त पर्यायें हैं। इस प्रकार शुद्ध 'जीव' नामक वस्तु को जैसी सर्वज्ञ ने देखी वैसी आगम में प्रसिद्ध है वह तो एक अभेद रूप शुद्ध निश्चय का विषयभूत जीव है, इस द ष्टि से अनुभव करें तब तो ऐसा है और अनन्त धर्मों में भेद रूप किसी एक धर्म को लेकर कहना सो व्यवहार है।
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आत्मवस्तु के अनादि ही से पुद्गल कर्म का संयोग है, उसके निमित्त से विकार भाव की उत्पत्ति है, उसके निमित्त से राग-द्वेष - मोह रूप विकार होता है उसको विकार परिणति कहते हैं, उससे फिर आगामी कर्म का बंध होता है। इस प्रकार अनादि निमित्त-नैमित्तिक भाव से चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण रूप प्रवत्ति होती है। वहाँ जिस गति को प्राप्त होता है वैसे ही नाम का जीव कहलाता है तथा जैसा रागादि भाव होता है वैसा नाम कहलाता है ।
जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की बाह्य - अन्तरंग सामग्री के निमित्त से अपने शुद्धस्वरूप शुद्ध निश्चय के विषयस्वरूप अपने को जानकर श्रद्धा करे और कर्म संयोग को तथा उसके निमित्त से अपने जो भाव होते हैं उनका यथार्थ स्वरूप जाने तब भेदज्ञान होता है, तब परभावों से विरक्त होता तब उनको मेटने का उपाय सर्वज्ञ के आगम से यथार्थ समझकर उसको अंगीकार करे तब अपने स्वभाव में
स्थिर होकर अनन्त चतुष्ट्य प्रकट होता है, सब कर्मों का क्षय करके लोक के
शिखर जा विराजता है, तब मुक्त हुआ कहलाता है, उसको सिद्ध भी कहते हैं। इस प्रकार जितनी संसार की अवस्था और यह मुक्त अवस्था - ऐसे भेद रूप
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