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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
उत्थानिका
आगे 'सुई के दष्टांत का दात कहते हैं
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पुरसो पि जो ससुत्तो ण विणसइ सो गओ वि संसारे । सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि ।। ४ ।।
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स्वामी विरचित
नहि नष्ट हो संसार में गत, भी जो सूत्र सहित पुरुष । प्रत्युत उसे नाशे अद ष्ट के, स्वानुभव प्रत्यक्ष से । । ४ । ।
अर्थ
जैसे सुई सूत्र सहित नष्ट नहीं होती वैसे जो पुरुष भी संसार में गत हो रहा है, अपना रूप जिसे अपने में द ष्टिगोचर नहीं है तो भी वह यदि सूत्र सहित हो, सूत्र का ज्ञाता हो तो उसके आत्मा सत्ता रूप चैतन्य चमत्कारमयी स्वसंवेदन से प्रत्यक्ष अनुभव में आती है इसलिए वह गत नहीं है अर्थात् नष्ट नहीं हुआ है उल्टे वह जिस संसार में गत है उस संसार का नाश करता है।
यद्यपि आत्मा इन्द्रियगोचर नहीं है अनुभवगोचर है। वह सूत्र का ज्ञाता है इसलिए सुई का दष्टांत युक्त
भावार्थ
तो भी सूत्र के ज्ञाता के स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से संसार का नाश करता है और आप प्रकट होता है । । ४ । ।
उत्थानिका
आगे 'सूत्र में अर्थ क्या है' सो कहते हैं :
थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी । । ५ । । सूत्रार्थ में जिन कहे बहुविघ, अर्थ जीवाजीव के ।
हैं हेय तथा अहेय उनको जानता सद्द ष्टि वह । । ५ । ।
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